Author: KN Tiwari

हवन के नियम

हवन के नियम

अग्नि वास देखने की विधि

सबसे पहले गणना के लिए ध्यान रखना है कि रविवार को 1 तथा शनिवार को 7 संख्या मानकर वार गिने जायेंगे।

  1. शुक्लपक्ष प्रतिपदा तिथि को 1 तथा अमावस्या को 30 मानकर गणना होगी ।
  2.  जिस दिन हवन करना हो उसी दिन की तिथि एवं वार की संख्या जोड़कर जो संख्या प्राप्त होगी उसमे 1(+) जोड़ें , तत्पश्चात 4 से भाग(divide) करें |
  3. यदि कुछ भी शेष न रहे अर्थात संख्या पूरी भाग हो जाये तो अग्नि का वास पृथ्वी पर जाने । यदि 3 शेष बचे तो भी अग्नि का वास पृथ्वी पर जाने । यदि 1 शेष बचे तो अग्नि का वास आकाश में जाने। यदि 2 शेष बचे तो अग्नि वास पाताल में जाने ।
  4. यदि अग्नि वास पृथ्वी पर है तो सुखकारक यदि आकाश में है तो प्राण हानिकारक यदि पाताल में है तो धनहानि कारक होता है।

वैसे तो प्रत्येक कार्य विधिपूर्वक करना उचित है, परन्तु यज्ञ जैसे महान धार्मिक कृत्य को और भी अधिक सावधानी, श्रद्धा और तत्परता से करना चाहिए। शास्त्रों में उल्लिखित विधि-विधानों और नियमों का पालन करना अनिवार्य है और इसमें लापरवाही नहीं करनी चाहिए। गीता में ऐसे अधूरे और लापरवाही से किए गए यज्ञ की निंदा की गई है और उसे तामसिक ठहराया गया है।

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्यहीनसदक्षिणम्।

श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

गीता 17।13

शास्त्र विधि से रहित, अन्न दान से वंचित, मंत्र और दक्षिणा के बिना तथा बिना श्रद्धा के किए गए यज्ञ को ‘तामस यज्ञ’ कहते हैं।

महाभारत में कहा गया है:

सुशुद्धै यजमानस्थ ऋत्विग्भिश्च यथा विधि

शुद्ध द्रव्योपकरणैर्यष्टव्यमिति निश्चयः।

तथा कृतेषु यज्ञेषु देवानां तोषणं भवेत।

श्रेष्ठ स्याद्देव संद्येषु यज्वा यज्ञ फलं लभेत।

शुद्ध और सुयोग्य ऋत्विजों से, विधिपूर्वक शुद्ध सामग्री से यजमान को यज्ञ कराना चाहिए। विधिपूर्वक यज्ञ सम्पन्न होने से देवता संतुष्ट होते हैं, जिससे उचित सम्मान और यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

होम, देव-पूजन आदि क्रियाओं में, आचमन में, और वस्त्र धारण में नियमों का पालन करना चाहिए:

नेक वस्त्रः प्रवर्तेत द्विजवाचनिकेतथा।

वामेपृष्ठे तथा नाभौ कच्छत्रय मुद्राहृतम्।

त्रिभिः कच्छैः परिज्ञेयो विओ यः शुचिर्भवेत्॥

यज्ञोपवीत को श्रौतिक और स्मार्तिक कर्मों में धारण करना चाहिए। यदि तीसरा वस्त्र न हो तो वह उत्तरीय के रूप में काम आता है। यदि कोई व्यक्ति गंजा हो, तो उसे ब्रह्मग्रन्थि युक्त कौशा धारण करनी चाहिए।

कुशा पाणि सदा तिष्ठैद्, ब्रह्मणो दम्भ वर्जितः।

वह नित्य पापों को नष्ट करता है, जैसे वायु तूल के ढेर को उड़ा देता है।

इस प्रकार यज्ञ को विधिपूर्वक, शुद्धता और श्रद्धा से करना चाहिए जिससे देवता प्रसन्न होकर यज्ञकर्ता को उचित फल प्रदान करें।

वैसे तो प्रत्येक कार्य विधिपूर्वक करना उचित है, परन्तु यज्ञ जैसे महान धार्मिक कृत्य को और भी अधिक सावधानी, श्रद्धा और तत्परता से करना चाहिए। शास्त्रों में उल्लिखित विधि-विधानों और नियमों का पालन करना अनिवार्य है और इसमें लापरवाही नहीं करनी चाहिए। गीता में ऐसे अधूरे और लापरवाही से किए गए यज्ञ की निंदा की गई है और उसे तामसिक ठहराया गया है:

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्यहीनसदक्षिणम्।

श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

गीता 17.13

शास्त्र विधि से रहित, अन्न दान से वंचित, मंत्र और दक्षिणा के बिना तथा बिना श्रद्धा के किए गए यज्ञ को ‘तामस यज्ञ’ कहते हैं।

महाभारत में कहा गया है:

सुशुद्धै यजमानस्थ ऋत्विग्भिश्च यथा विधि

शुद्ध द्रव्योपकरणैर्यष्टव्यमिति निश्चयः।

तथा कृतेषु यज्ञेषु देवानां तोषणं भवेत।

श्रेष्ठ स्याद्देव संद्येषु यज्वा यज्ञ फलं लभेत।

शुद्ध और सुयोग्य ऋत्विजों से, विधिपूर्वक शुद्ध सामग्री से यजमान को यज्ञ कराना चाहिए। विधिपूर्वक यज्ञ सम्पन्न होने से देवता संतुष्ट होते हैं, जिससे उचित सम्मान और यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

होम, आचमन, संध्या, स्वस्तिवाचन और देव पूजन आदि क्रियाओं को एक वस्त्र से न करें। नाभि पर तथा नाभि से कमर भाग में और एक पृष्ठ भाग में इस प्रकार धोती की तीन काछें लगाने से ब्राह्मण कर्म के योग्य शुद्ध होता है:

होम देवार्चनाद्यास्तु क्रियास्वाचमने तथा।

नेक वस्त्रः प्रवर्तेत द्विजवाचनिकेतथा।

वामेपृष्ठे तथा नाभौ कच्छत्रय मुद्राहृतम्।

त्रिभिः कच्छैः परिज्ञेयो विओ यः शुचिर्भवेत्॥

यज्ञोपवीते द्वेधार्ये श्रौते स्मार्ते कर्मणि।

तृतौयमुत्तरीयार्थे वस्त्राभावेतदिष्यते।

खल्वाटत्वादि दोषेण विशिखश्चेन्नरोभवेत्।

कौशीं तदाधारयीत ब्राह्मग्रन्थि युताँशिखाम्।

श्रोत और स्मार्त कर्मों में दो यज्ञोपवीत धारण करने चाहिए। कंधे पर अंगोछा न हो तो तीसरा यज्ञोपवीत उसके स्थान में ग्रहण करें। यदि गंजेपन के कारण शिरस्थान पर बाल न हो तो ब्रह्मग्रन्थि लगाकर कौशा धारण करनी चाहिए।

कुश पाणि सदा तिष्ठैद्, ब्रह्मणो दम्भ वर्जितः।

वह नित्य पापों को नष्ट करता है, जैसे वायु तूल के ढेर को उड़ा देता है।

इस प्रकार यज्ञ को विधिपूर्वक, शुद्धता और श्रद्धा से करना चाहिए जिससे देवता प्रसन्न होकर यज्ञकर्ता को उचित फल प्रदान करें।

होम, आचमन, संध्या, स्वस्तिवाचन और देव पूजन आदि कर्मों को एक वस्त्र से न करें। नाभि पर तथा नाभि से कमर भाग में और एक पृष्ठ भाग में इस प्रकार धोती की तीन काछें लगाने से ब्राह्मण कर्म के योग्य शुद्ध होता है। श्रोत और स्मार्त कर्मों में दो यज्ञोपवीत धारण करने चाहिए। कंधे पर अंगोछा न हो तो तीसरा यज्ञोपवीत उसके स्थान में ग्रहण करें। यदि गंजेपन के कारण शिरस्थान पर बाल न हो तो ब्रह्मग्रन्थि लगाकर कुश की शिखा धारण करें। जो ब्राह्मण हाथ में कुश लेकर कार्य करता है वह पापों को नष्ट करता है।

संकल्पेन बिना कर्म यत्किंचित् कुरुते नरः।

फलं चाप्यल्पकं तस्य धर्मस्यार्द्धक्षयो भवेत्।

संकल्प के बिना जो कर्म किया जाता है उसका आधा फल नष्ट हो जाता है। इसलिए संकल्प पढ़कर हवन कृत्य करावें।

अव होमोपवासेषु धौतवस्त्र धरो भवेत्।

अलंकृतः शुचिमौनो श्रद्धावान विजितेन्द्रियः॥

जप, होम और उपवास में धुले हुए वस्त्र धारण करने चाहिए। स्वच्छ, मौन, श्रद्धावान और इन्द्रियों को जीतकर रहना चाहिए।

अधोवायु समुत्सर्गेप्रहासेऽनृत भाषणे।

मार्जार मूषिक स्पर्शे आक्रुष्टे क्रोध सम्भवे।

निमित्तेष्वेषु सर्वेषु कर्म कुर्वन्नयः स्पृशेत्।

होम, जप आदि करते हुए, अपान वायु निकल पड़ने, हंस पड़ने, मिथ्या भाषण करने, बिल्ली या मूषक आदि के छू जाने, गाली देने और क्रोध आ जाने पर हृदय तथा जल का स्पर्श करना ही प्रायश्चित है।

ग्रंथों में अनेक विधि-विधानों का अधिक खुलासा-वर्णन नहीं है। संक्षिप्त रूप से ही संकेत कर दिए गए हैं। ऐसे प्रसंगों पर कुछ का स्पष्टीकरण इस प्रकार है:

कर्त्रगानामनुक्तौतु दक्षिणाँगं भवेत्सदा।

यत्रदिं नियमोनास्ति जपादिषु कथंचन।

तिस्रस्तत्रदिशः प्रोक्ता ऐन्द्री सौम्याँऽपराजिता।

आसीनः प्रह्वऊर्ष्वोवा नियमोयत्रनेदृशः।

तदासीने कर्त्तव्यं प्रह्वेण तिष्ठता।

इन निर्देशों का पालन करते हुए, यज्ञ और अन्य धार्मिक कर्मों को शुद्धता और श्रद्धा से सम्पन्न करना चाहिए, जिससे जहाँ कर्ता का हस्त आदि नहीं कहा गया हो कि अमुक अंग से यह करे, वहाँ सर्वत्र दाहिना हाथ जाना चाहिए। जप, होम आदि में जहाँ दिशा का नियम न लिखा हो, वहाँ सर्वत्र पूर्व, उत्तर और ईशान, इनमें से किसी दिशा में मुख करके कर्म करें। जहाँ यह नहीं कहा गया हो कि खड़ा होकर, बैठकर या झुककर कर्म करें, वहाँ सर्वत्र बैठकर करना चाहिए।

सदोपवीतिनाभाव्यं सदा बद्ध शिखेन च।

विशिखाव्युपवीतश्च यत्करोति तत्कृतम्।

तिलकं कुँकुमे नैव सदा मंगल कर्मणि।

कारयित्वा सुमतिमान श्वेत चन्दनं मृदा।

हवन आदि करते समय यज्ञोपवीत पहनें, शिखा में गाँठ लगाए रहें। खुली शिखा न रखें। सभी मांगलिक कार्यों में केसर मिश्रित तिलक लगावें। सफेद चन्दन या मिट्टी का तिलक न करें।

हविष्यान्नं तिला माषा नीवारा ब्रीहयो यवाः

इक्षवः शालयो मुद्गा पयोदधि घृतं मधु।

तिल, उड़द, तिन्नी, भदौह, धान, जौ, ईख, बासमती चावल, मूँग, दूध, दही, घी और शहद ये हविष्यान्न हैं। इनमें जौ मुख्य है उसके बाद धान। यदि धान न मिले तो दूध अथवा दही में काम चलावें। यदि कही हुई वस्तु न मिले तो उसके स्थान पर समान गुण वाली वस्तु ले लेनी चाहिए।

स्नास्यतो वरुणस्तेजो जुह्यतोऽग्नि श्रियं हरेत्।

भुञ्जानस्य यमस्त्वायुः तस्यान्न व्याहरेत् त्रिषु॥

स्नान करते समय बोलने वाले का तेज वरुण हरण कर लेता है। यज्ञ करते समय बोलने वाले की श्री अग्नि हरण करती है। भोजन करते समय बोलने वाले की आयु यम हरण कर लेते हैं।

क्षुतृट्क्रोध सामयुक्तो हीन मंत्रो जुहोति यः

अप्रवृद्धे सधूमे या सोऽन्धः स्यादन्य जन्मनि।

भूख, प्यास, क्रोध आदि से व्याकुल व्यक्ति, मंत्रहीन, अप्रज्ज्वलित अग्नि में हवन करता है तो वह अगले जन्म में अंधा होता है।

युक्ता केशोजुहुयान्नानिपातित जानुकः

अनिपातितजानुस्तु राक्षसैह्रियते हविः।

खुले बाल रखकर एवं खुली जानु (घुटना) रखकर हवन न करें, क्योंकि ऐसा करने से राक्षस हवि का हरण कर लेते हैं।

तिलार्ध तण्डुला देयास्टण्डुलार्ध यवस्तिथा

यवार्ध शर्कराः प्रोक्ताः सवार्द्धच घृतं स्मृतम्।

आनन्द रामायण

तिल से आधे चावल, चावल से आधे जौ, जौ से आधी शक्कर और आधा घी लेना चाहिए।

सर्व काम समृद्ध्यर्थं तिलाधिक्यं सदैव हि।

त्रिकारिका

सभी कार्यों में सफलता के लिए तिल अधिक मात्रा में लेने चाहिए।

शमी (छोंकर) पलाश (ढाक) बट, प्लक्ष (पाकर) विकंकृत, पीपल, उदम्बर (गूलर) बेल, चन्दन, सरल, शाल, देवदारु और खैर ये याज्ञिक वृक्ष हैं, इनकी समिधा होम में लगावें।

पलाशाऽश्वत्थन्यग्रोध प्लक्षकवैकंकतोभद्वाः।

वैतसौदुम्वरो विल्वश्चन्दनः सरलस्तथा॥

शालश्च देवदारुश्च खदिरश्चेति याज्ञिकाः॥

हवन में प्रयोग के लिए इन वृक्षों की समिधा उत्तम मानी जाती है।सभी कर्म विधिपूर्वक और धर्मसंगत हों।

ब्राह्म पुराण

ढाक, पीपल, बरगद, वेंकट, बेंत, गूलर, बेल, चन्दन, साल, देवदारु, कत्था की लकड़ी याज्ञिक कही गई है।

वायु पुराण

कीड़े-मकोड़ों से भरे हुए, लताओं से लिपटे हुए, इमली, कटहल आदि वृक्ष यज्ञ के लिए उपयुक्त नहीं हैं। काँटेदार, दीमकों की बाम्बी वाले और जिनमें पक्षी रहते हों, ऐसे वृक्ष यज्ञ के लिए ग्राह्य होने पर भी काम में नहीं लेने चाहिए।

आहुति विधि

मंत्र से ऊंकार से शुद्ध करते हुए और अंत में स्वाहा लगाते हुए मंत्र देवता का ध्यान करते हुए आहुति दें।

यदालेलायते ह्यर्चिं समिद्धे हव्यवाहने।

तदाज्यभागावन्तेरेणाहुतीः प्रतिपादयेत्।

मुण्डकोपनिषद्

जब अग्नि भली भांति जल चुकी हो और उसकी लपटें उठने लगें तब उसमें आहुतियाँ देनी चाहिए।

योऽनर्चिषि जुहोत्यग्नौ व्यंग्कारिणी मानवः।

मन्दाग्नि रामयावी दरिद्रश्चापि जायते।

तस्मात्समिद्धे होतव्यं नासभिद्धे कथञचन॥

छांदोग्य परिशिष्ट

जो मनुष्य बिना प्रज्ज्वलित, बिना अंगार की अग्नि में आहुति देता है, वह मंदाग्नि आदि उदर रोगों का दुख पाता है। इसलिए प्रज्ज्वलित अग्नि में ही हवन करना चाहिए।

ऋत्वजा जुह्यता वह्नौ वहिः पतति यद्धविः।

ज्ञेयो वारुणो भागः अक्षेप्या विमले जले।

शौनक

अग्नि में हवन करते समय जो हवि बाहर गिर पड़े उसे वरुण का भाग मानकर पवित्र जलाशय में विसर्जित करना चाहिए।

हवन का सही तरीका

सीधे हाथ से एवं अंगूठे के अग्रभाग से दबाए हुए, परस्पर मिली हुई अंगुली युक्त हाथ से हवन करें।

पूजा की आवश्यक सामग्री

कुशेन रहिता पूजा विफला कृतिता मया।

उदकेन बिना पूजा बिना दर्भेण या क्रिया॥

जल और कुश के उपयोग के बिना पूजा सफल नहीं होती। कुश के स्थान पर दूर्वा का उपयोग मंगल कार्यों में किया जा सकता है।

हेमाद्रि

कुश के स्थान पर दूब का उपयोग कर लेने से मंगल की वृद्धि होती है।

हवन के समय वेद मंत्रों का सस्वर उच्चारण

हवन के समय वेद मंत्रों को सस्वर उच्चारण करने या छन्द, ऋषि, देवता आदि का विनियोग पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। यथा-

उपस्थाने जपे होमे दोहे यज्ञ कर्मणि।

हस्त स्वरं कुर्वीत शेवस्तु स्वर संयुता।

ओतोल्लास

आवश्यकता नहीं है। अन्य कर्मों में लगाव।

हस्त स्वर का प्रयोग

जप, होम, यज्ञ, श्राद्ध, अभिषेक, पितृकर्म, संध्या अथवा देव पूजन में हस्त स्वर का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

जपेहोमे मखे श्राद्धेऽभिषेके पितृकर्मणि।

हस्तस्वरं कुर्वीत सन्ध्यादौ देव पूजने।

स्मार्त प्रभुः

कण्ठ स्वर का प्रयोग

उपस्थान, जप, होम, मार्जन तथा यज्ञ में कण्ठ स्वर पर्याप्त है।

उपस्थाने जपे होमे मार्जने यज्ञ कर्मणि।

कण्ठ स्वरं प्रकुर्वीत…………..

स्मार्त प्रभुः

ऋषि, छन्द, एवं ओंकार का स्मरण

श्राद्ध, अग्निहोत्र, एवं ब्रह्म यज्ञ में ऋषि, छन्द, एवं ओंकार का स्मरण वर्जित है।

स्मरेत् ऋषि छन्दः श्राद्धे वैतानिकेमखे।

ब्रह्म यज्ञे वै तद्धत्तथोंकार विवर्जयते।

हवन में उँगलियों का प्रयोग

हवन करते समय किन-किन उँगलियों का प्रयोग किया जाय इसके संबंध में भृंगी और हंसी मुद्रा को शुभ माना गया है। ‘मृगी’ मुद्रा वह है जिसमें अंगूठा, मध्यमा और अनामिका उँगलियों से सामग्री होमी जाती है। हंसी मुद्रा वह है जिसमें सबसे छोटी उँगली कनिष्ठिका का उपयोग न करके शेष तीन उँगलियों तथा अंगूठे की सहायता से आहुति छोड़ी जाती है।

होमे मुद्रा स्मृतास्तिस्रो मृगी हंसी सूकरी।

मुद्राँ बिना कृतो होमः सर्वो भवति निष्फलः।

शान्तके तु मृगी ज्ञेया हंसी पौष्टिक कर्मणि।

सूकरी त्वभिचारे तु कार्ण तंत्र विदुत्तमेः।

परशुराम कारिका

मुद्राओं का विवरण

कनिष्ठा और तर्जनी उँगलियाँ जिसमें प्रयुक्त न हों वह मृगी मुद्रा है। कनिष्ठा रहित हंसी मुद्रा होती है और हाथ को सिकोड़ने से सूकरी मुद्रा बन जाती है।

कनिष्ठा तर्जनी हीना मृगी मुद्रा निरुच्यते।

हंसी मुक्त कनिष्ठा स्यात् कर संकोच सूकरी।

परशुराम कारिका

पद्य पुराण-भूमिखण्ड

ध्यान दें कि हवन विधि में सही मुद्रा और नियमों का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिससे हवन का सम्पूर्ण फल प्राप्त हो।

  1. जो होम जिस देवता के उद्देश्य से किया जावे, उसी के मंत्र से हवन होना चाहिए।
  • देव यात्रा, विवाह, यज्ञ एवं उत्सवों में छूतछात का विचार नहीं किया जाता:

देययात्रा विवाहेषु यज्ञ प्रकरणोषु च।

उत्सवेषु सर्वेषु स्पृष्टास्पृष्टं विद्यते।

अत्रि स्मृति 246

शुभ मुहूर्त देखकर उत्तम बेला में शुभ कर्म करना सदा ही उचित है, पर अनावश्यक रूप से अधिक लंबे समय तक मुहूर्त आदि की अड़चन के कारण उसे टालना ठीक नहीं। क्योंकि टालने से आज का उत्साह एवं सत्संकल्प ठण्डा पड़ सकता है या कोई अन्य विघ्न उसमें रोड़ा अटका सकता है। इसलिए शुभ कार्य को शीघ्र करना उचित है।

यदैव जायते वित्तं चित्तं श्रद्धा समन्वितम्।

तदैव पुण्यकालोऽयं यतोऽनियत् जीवितम्।

अतः सर्वेषु कालेषु रुद्रयज्ञः शुभप्रदः॥

परशुरामः

जब पैसे की सुविधा हो, जब चित्त में श्रद्धा हो तभी पुण्य काल (शुभ मुहूर्त) है। क्योंकि इस नाशवान जीवन का कोई समय नहीं। रुद्र यज्ञ के लिए सभी समय शुभ है।

जन्म मरण आदि के कारण जो मृतक हो जाते हैं, उनमें शुभ कर्म निषिद्ध है। जब तक शुद्धि न हो जाए, तब तक यज्ञ, ब्रह्म भोजन आदि नहीं किये जाते। परन्तु यदि वह शुभ कार्य प्रारंभ हो जाए, तो फिर सूतक उपस्थिति होने पर उस कार्य का रोकना आवश्यक नहीं। ऐसे समयों पर शास्त्रकारों की आज्ञा है कि उस यज्ञादि कर्म को बीच में न रोककर उसे यथावत चालू रखा जाए। इस सम्बंध में कुछ शास्त्रीय अभिमत नीचे दिए जाते हैं:

यज्ञे प्रवर्तमाने तु जायेतार्थ म्रियेत वा।

पूर्व संकल्पिते कार्ये दोष स्तत्र विद्यते।

यज्ञ काले विवाहे देवयागे तथैव च।

हूय माने तथा चाग्नौ नाशौचं नापि सतकम्।

दक्षस्मृति 6।19-20

यज्ञ हो रहा हो ऐसे समय यदि जन्म या मृत्यु का सूतक हो जाए तो इससे पूर्व संकल्पित यज्ञादि धर्म में कोई दोष नहीं होता। यज्ञ, विवाह, देवयोग आदि के अवसर पर जो सूतक होता है उसके कारण कार्य नहीं रुकता।

देव प्रतिष्ठोर्त्सगविवाहेषु देशविभ्रमे।

नापद्यपि कष्टायामा शौचम्॥

विष्णु स्मृति

देव प्रतिष्ठा, उत्सर्ग, विवाह आदि में उपस्थित सूतक में बाधा नहीं।

विवाह दुर्ग यज्ञेषु यात्रायाँ तीर्थ कर्मणि।

तत्र सूतकं तद्वत कर्म याज्ञादि कारयेत॥

पैठानसि

विवाह, किला बनाना, यज्ञ, यात्रा, तीर्थ कर्म के समय यदि सूतक हो जाए, तो उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।

यज्ञ करने वाले यजमान पर ही नहीं यह बात ऋत्विज, ब्रह्मा, आचार्य आदि पर भी लागू होती है। उनके यहाँ कोई सूतक हो जाए, तो वह यज्ञ करने-कराने या उसमें भाग लेने के अनधिकारी नहीं होते तथा:

ऋत्विजाँ यजमानस्य तत्पत्न्या देशकस्य च।

कर्ममध्ये तु नाशौच मन्त एव तु तद्भवेत॥

ऋत्विजों को, यजमान को, यजमान की पत्नी को और आचार्य को जन्म या मरण का सूतक नहीं लगता। यज्ञ कर्म की पूर्ति हो जाने पर ही उन्हें सूतक लगता है।

ऋत्विजाँ दीक्षितानाँ याज्ञिकं कर्म कुर्वताम्।

सत्रिव्रति ब्रह्मचरिदातृ ब्रह्म विदाँ तथा॥

दाने विवाहे यज्ञे संग्रामे देश विप्लवे।

आपद्यपि हि कष्टायाँ सद्यः शौचं विधीयते॥

ऋत्विज, दीक्षित, याज्ञिक कर्म करने वाले, सत्रिव्रत, ब्रह्मचारी, दात्री, ब्रह्मविद्, दान, विवाह, यज्ञ, संग्राम, देश विप्लव एवं आपत्ति के समय, तथा कष्ट में भी सद्यः शौच विधेय है।

इस प्रकार, शास्त्रों के अनुसार, यज्ञ और अन्य धार्मिक कर्मों में सूतक की उपस्थिति से प्रभावित नहीं होना चाहिए, और यज्ञ को विधिपूर्वक पूर्ण करना चाहिए।

याज्ञवल्क्य:

ऋत्विज्, दीक्षित अन्नसत्रि, चान्द्रायण आदि व्रतों में तत्पर, ब्रह्मचारी, दानी, ब्रह्मज्ञानी और याज्ञिकों की दान में, विवाह में, यज्ञ में, संग्राम में, देश विप्लव में और आपत्ति में सद्यः (तुरन्त) शुद्धि हो जाती है। यज्ञ के मध्य सूतक हो जाने पर तात्कालिक स्नान कर लेने मात्र से उसकी शुद्धि हो जाती है। ऐसे अवसरों पर सूतक निवृत्ति के लम्बे समय तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती। यथा:

यज्ञे विवाह काले सद्यः शौचं विधीयते।

विवाहोत्सव यज्ञेषु अन्तरामृत सूतके।

पूर्वसंकल्पितार्थास्य दोषश्चात्रिरव्रवीत्॥

अत्रि सं. 9 98

यज्ञ और विवाह में जन्म या मृत्यु का सूतक (अशौच) आ जाय तो उसको सद्यः शुद्धि हो जाती है। उस पूर्व संकल्पित कार्य या विवाहादि में कोई बाधा नहीं पड़ती।

सारांश में, धर्म शास्त्रों के अनुसार, यज्ञ और अन्य शुभ कार्यों में सूतक या अशौच के कारण कार्य रोकने की आवश्यकता नहीं होती। आवश्यक तात्कालिक उपाय जैसे स्नान आदि कर लेने से शुद्धि प्राप्त हो जाती है और कार्य सुचारू रूप से चलता रहता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि धार्मिक अनुष्ठान और शुभ कार्यों को सुगम बनाने के लिए शास्त्रों में पर्याप्त प्रावधान हैं, जिससे कि सामाजिक और धार्मिक जीवन में बाधा न आए।

गुप्त नवरात्रि 2024

गुप्त नवरात्रि: तंत्र साधना का पवित्र पर्व

गुप्त नवरात्रि का पर्व देवी दुर्गा की उपासना और तंत्र साधना के लिए विशेष महत्व रखता है। इस पर्व को गुप्त इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें देवी के गुप्त रूपों की पूजा की जाती है और विशेष तंत्र साधनाएं की जाती हैं। गुप्त नवरात्रि साल में दो बार मनाई जाती है – एक बार माघ मास में और दूसरी बार आषाढ़ मास में। आइए, इस पर्व के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करते हैं।

गुप्त नवरात्रि कब है 2024?

2024 में गुप्त नवरात्रि की तिथियां इस प्रकार हैं:

  • माघ गुप्त नवरात्रि: 10 फरवरी 2024 से 18 फरवरी 2024 तक।
  • आषाढ़ गुप्त नवरात्रि: 4 जुलाई 2024 से 12 जुलाई 2024 तक।

गुप्त नवरात्रि का रहस्य

गुप्त नवरात्रि का रहस्य इसके नाम से ही स्पष्ट है। ‘गुप्त’ का अर्थ है ‘छिपा हुआ’ या ‘गोपनीय’। यह पर्व तंत्र साधना और गुप्त उपासना के लिए प्रसिद्ध है। इसमें देवी दुर्गा के दस महाविद्याओं की पूजा की जाती है। ये दस महाविद्याएं हैं:

  1. काली
  2. तारा
  3. त्रिपुर सुंदरी
  4. भुवनेश्वरी
  5. छिन्नमस्ता
  6. भैरवी
  7. धूमावती
  8. बगलामुखी
  9. मातंगी
  10. कमला

गुप्त नवरात्रि में की जाने वाली साधनाएं और अनुष्ठान गुप्त होते हैं और इन्हें सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता। ये साधनाएं व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति और तंत्र साधना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।

गुप्त नवरात्रि मंत्र

गुप्त नवरात्रि में विभिन्न मंत्रों का जाप अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण मंत्र निम्नलिखित हैं:

  1. दुर्गा मंत्र: ॐ दुं दुर्गायै नमः
  2. महाकाली मंत्र:ॐ क्रीं का ली कल्याणि नमः
  3. तारा मंत्र: ॐ ऐं ह्रीं श्रीं तारा नमः
  4. त्रिपुर सुंदरी मंत्र: ॐ ऐं क्लीं सौः

इन मंत्रों का जाप गुप्त नवरात्रि के दौरान नियमित रूप से करने से देवी की कृपा प्राप्त होती है और साधक की आध्यात्मिक शक्ति में वृद्धि होती है।

गुप्त नवरात्रि कब आती है?

गुप्त नवरात्रि साल में दो बार आती है:

  1. माघ मास: माघ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक।
  2. आषाढ़ मास: आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक।

गुप्त नवरात्रि की पूजा विधि

गुप्त नवरात्रि में पूजा विधि साधक की तंत्र साधना के अनुसार भिन्न हो सकती है। सामान्यतः निम्नलिखित पूजा विधि अपनाई जाती है:

  1. स्नान और शुद्धिकरण: प्रातः काल स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करें।
  2. मंत्र जाप: देवी के गुप्त मंत्रों का जाप करें।
  3. देवी की प्रतिमा या चित्र: देवी दुर्गा या दस महाविद्याओं की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें।
  4. धूप-दीप जलाएं: धूप-दीप जलाकर देवी की आरती करें।
  5. भोग लगाएं: देवी को फल, फूल, मिठाई आदि का भोग लगाएं।
  6. हवन: यदि संभव हो तो हवन करें और हवन सामग्री अर्पित करें।
  7. ध्यान और साधना: देवी के ध्यान में लीन होकर साधना करें।

गुप्त नवरात्रि का महत्व

गुप्त नवरात्रि का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व अत्यंत गहरा है। यह पर्व विशेष रूप से तंत्र साधकों के लिए महत्वपूर्ण है। इस दौरान की गई साधनाएं और अनुष्ठान साधक की आध्यात्मिक शक्ति में वृद्धि करते हैं और देवी की कृपा से जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का वास होता है।

निष्कर्ष

गुप्त नवरात्रि एक पवित्र और महत्वपूर्ण पर्व है जो देवी दुर्गा की गुप्त साधना और तंत्र विद्या के लिए जाना जाता है। यह पर्व साधकों को आत्मशुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का अवसर प्रदान करता है। इस पर्व को श्रद्धा और विधिपूर्वक मनाना चाहिए ताकि देवी की कृपा प्राप्त हो और जीवन में समृद्धि का आगमन हो। गुप्त नवरात्रि का पर्व केवल साधना और पूजा का ही नहीं बल्कि आत्मानुशासन, संयम और ध्यान का भी पर्व है, जो साधक को अपने आत्मबल को पहचानने और उसका सही उपयोग करने का अवसर प्रदान करता है।गुप्त नवरात्रि में तंत्र साधनाओं का महत्व होता है जिन्हें गुप्त रूप से किया जाता है इसलिए यह गुप्त नवरात्रि कहलाती हैं

श्राद्ध अमावस्या 2024

श्राद्ध की अमावस्या: पितरों की तृप्ति का पवित्र पर्व

श्राद्ध की अमावस्या, जिसे सर्वपितृ अमावस्या भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म में पितरों की आत्मा की शांति और तृप्ति के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह दिन पितृ पक्ष के समापन का प्रतीक है और इस दिन विशेष पूजा-अर्चना, तर्पण और दान-पुण्य करके पितरों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है। आइए, इस पवित्र पर्व से जुड़ी विभिन्न जानकारियों पर विस्तार से चर्चा करते हैं।

श्राद्ध की अमावस्या कब है 2024?

2024 में श्राद्ध की अमावस्या 2 अक्टूबर को मनाई जाएगी। यह दिन अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को आता है। इस दिन पितरों के निमित्त तर्पण, पिंडदान और अन्य धार्मिक क्रियाएं की जाती हैं, ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद दें।

श्राद्ध अमावस्या को क्या करना चाहिए?

श्राद्ध अमावस्या के दिन पितरों की आत्मा की शांति और उनकी तृप्ति के लिए निम्नलिखित कार्य करना चाहिए:

  1. तर्पण: पवित्र जल, तिल और कुशा का उपयोग करके पितरों का तर्पण करें।
  2. पिंडदान: चावल, जौ, तिल और कुशा से पिंड बनाकर पितरों को अर्पित करें।
  3. ब्राह्मण भोजन: ब्राह्मणों को भोजन कराएं और उन्हें दान-दक्षिणा दें।
  4. हवन: घर में हवन करें और हवन सामग्री अर्पित करें।
  5. दान: गरीबों और जरुरतमंदों को भोजन, वस्त्र और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान करें।
  6. ध्यान और मंत्र जाप: भगवान विष्णु या शिव के मंत्रों का जाप करें।

श्राद्ध की स्नान की विधि

श्राद्ध के दिन विशेष स्नान का प्रावधान है। इसे “तीर्थ स्नान” भी कहा जाता है। इस विधि के अनुसार:

  1. पवित्र नदी या सरोवर में स्नान: यदि संभव हो तो किसी पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करें।
  2. घर पर स्नान: यदि बाहर स्नान करना संभव नहीं हो तो घर पर गंगाजल मिलाकर स्नान करें।
  3. स्नान के मंत्र: स्नान के दौरान “गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति। नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन्सन्निधिं कुरु॥” मंत्र का उच्चारण करें।
  4. शुद्ध वस्त्र धारण: स्नान के बाद शुद्ध वस्त्र धारण करें और पूजा के लिए तैयार हों।

श्राद्ध की विधि

श्राद्ध की विधि को सही तरीके से करने के लिए निम्नलिखित चरणों का पालन करें:

  1. प्रातःकाल स्नान: सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और साफ वस्त्र धारण करें।
  2. स्थान की शुद्धि: पूजा स्थल को गंगाजल से शुद्ध करें।
  3. पितृ तर्पण: पितरों के नाम का तर्पण करें। इसके लिए कुशा, तिल और जल का उपयोग करें।
  4. पिंडदान: चावल, जौ, तिल, और कुशा से पिंड बनाएं और पितरों को अर्पित करें।
  5. ब्राह्मण भोजन: ब्राह्मणों को आमंत्रित करके भोजन कराएं और उन्हें दान-दक्षिणा दें।
  6. हवन: हवन करें और उसमें हवन सामग्री अर्पित करें।
  7. प्रसाद वितरण: घर के सदस्यों और पड़ोसियों को प्रसाद वितरित करें।

श्राद्ध की अमावस्या का महत्व

श्राद्ध की अमावस्या का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व अत्यंत गहरा है। इसे पितरों की आत्मा की शांति और तृप्ति के लिए सर्वोत्तम दिन माना जाता है। इस दिन किए गए तर्पण और पिंडदान से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं। पितरों की कृपा से घर में सुख-समृद्धि और शांति बनी रहती है।

श्राद्ध अमावस्या के दिन का पालन करने से लाभ

  1. पितरों की आत्मा को शांति: तर्पण और पिंडदान से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है।
  2. कुल की समृद्धि: पितरों की कृपा से परिवार में सुख-समृद्धि और शांति का वास होता है।
  3. धार्मिक पुण्य: श्राद्ध कर्म से धार्मिक पुण्य की प्राप्ति होती है।
  4. पारिवारिक सुख: पितरों के आशीर्वाद से परिवार में आपसी प्रेम और सौहार्द बना रहता है।

श्राद्ध की अमावस्या पितरों की आत्मा की शांति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण दिन है। इस दिन की गई पूजा और तर्पण से पितरों की कृपा प्राप्त होती है और उनके आशीर्वाद से जीवन में सुख, समृद्धि और शांति का आगमन होता है। अतः, इस पवित्र पर्व को श्रद्धा और विधिपूर्वक मनाना चाहिए।

शिव चतुर्दशी व्रत 2024

शिव चतुर्दशी व्रत: भगवान शिव की आराधना का विशेष पर्व

शिव चतुर्दशी व्रत भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण व्रत है। यह व्रत हर महीने की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है और इस दिन शिव भक्त व्रत रखकर शिव जी की आराधना करते हैं। आइए, शिव चतुर्दशी व्रत के विभिन्न पहलुओं के बारे में विस्तार से जानें:

शिव चतुर्दशी व्रत कब है?

शिव चतुर्दशी व्रत हर महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है। वर्ष 2024 में शिव चतुर्दशी व्रत की तिथियां निम्नलिखित हैं:

  • जनवरी: 13 जनवरी 2024
  • फरवरी: 11 फरवरी 2024
  • मार्च: 12 मार्च 2024
  • अप्रैल: 10 अप्रैल 2024
  • मई: 10 मई 2024
  • जून: 8 जून 2024
  • जुलाई: 8 जुलाई 2024
  • अगस्त: 6 अगस्त 2024
  • सितंबर: 5 सितंबर 2024
  • अक्टूबर: 4 अक्टूबर 2024
  • नवंबर: 3 नवंबर 2024
  • दिसंबर: 2 दिसंबर 2024

इन तिथियों के अनुसार, शिव भक्त शिव चतुर्दशी व्रत रख सकते हैं और भगवान शिव की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।

शिव चतुर्दशी का महत्व

शिव चतुर्दशी व्रत का धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इस व्रत को करने से भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है और सभी पापों का नाश होता है। शिव चतुर्दशी व्रत को विधिपूर्वक करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का आगमन होता है। इस दिन शिवलिंग का अभिषेक और पूजा विशेष फलदायी मानी जाती है।

शिव चतुर्दशी व्रत कथा

शिव चतुर्दशी व्रत कथा के अनुसार, एक बार ब्रह्मा जी ने नारद मुनि को भगवान शिव की महिमा के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति शिव चतुर्दशी व्रत रखता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस व्रत की कथा में राजा सुदक्षिण का वर्णन है, जिन्होंने भगवान शिव की आराधना करके अपनी समस्त समस्याओं का समाधान पाया। उन्होंने शिव चतुर्दशी व्रत किया और शिव जी की कृपा से उनका राज्य पुनः सुरक्षित हो गया।

शिव चतुर्दशी व्रत की विधि 2024

शिव चतुर्दशी व्रत को विधिपूर्वक करने के लिए निम्नलिखित चरणों का पालन करें:

  1. प्रातःकाल स्नान: व्रत के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और शुद्ध वस्त्र धारण करें।
  2. व्रत का संकल्प: भगवान शिव की प्रतिमा या शिवलिंग के सामने व्रत का संकल्प लें।
  3. पूजा स्थल की तैयारी: पूजा स्थल को गंगाजल से शुद्ध करें और एक साफ चौकी पर शिवलिंग स्थापित करें।
  4. शिवलिंग का अभिषेक: शिवलिंग का दूध, दही, घी, शहद और गंगाजल से अभिषेक करें।
  5. पूजा सामग्री: भगवान शिव को बेलपत्र, धतूरा, आक के फूल, फल, धूप-दीप आदि अर्पित करें।
  6. शिव मंत्रों का जाप: शिव मंत्रों का जाप करें। महामृत्युंजय मंत्र, शिव पंचाक्षर मंत्र आदि का जाप विशेष फलदायी होता है।
  7. व्रत कथा: शिव चतुर्दशी व्रत की कथा सुनें या पढ़ें।
  8. आरती: संध्या के समय भगवान शिव की आरती करें और प्रसाद वितरित करें।
  9. रात्रि जागरण: रात्रि में जागरण करें और शिव भजन गाएं।
  10. व्रत का पारण: अगले दिन प्रातःकाल सूर्योदय के बाद व्रत का पारण करें और भोजन ग्रहण करें।

शिव चतुर्दशी व्रत के लाभ

  1. आध्यात्मिक उन्नति: भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और आध्यात्मिक उन्नति होती है।
  2. पापों का नाश: इस व्रत को करने से सभी पापों का नाश होता है।
  3. स्वास्थ्य लाभ: व्रत रखने से शारीरिक और मानसिक शुद्धि होती है।
  4. समृद्धि: आर्थिक स्थिति में सुधार और समृद्धि की प्राप्ति होती है।
  5. शांति: मन और जीवन में शांति का अनुभव होता है।

शिव चतुर्दशी व्रत भगवान शिव की आराधना का एक विशेष पर्व है, जिसे विधिपूर्वक करने से जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का आगमन होता है। इस व्रत को करने से भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यदि आप अपने जीवन में किसी भी प्रकार की समस्या का सामना कर रहे हैं, तो शिव चतुर्दशी व्रत रखकर भगवान शिव की आराधना करें और उनकी कृपा से सभी समस्याओं का समाधान पाएं।

प्रदोष व्रत 2024

प्रदोष व्रत: शिव की आराधना का परम पर्व

प्रदोष व्रत भगवान शिव की उपासना का एक महत्वपूर्ण पर्व है जो हर महीने की त्रयोदशी तिथि को रखा जाता है। इस व्रत को करने से शिव भक्तों को सुख, समृद्धि और शांति की प्राप्ति होती है। आइए जानते हैं प्रदोष व्रत के विभिन्न पहलुओं के बारे में:

प्रदोष व्रत कब है?

प्रदोष व्रत हर महीने दो बार, एक बार शुक्ल पक्ष और एक बार कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है। इसका विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि इसे करने से भगवान शिव और माता पार्वती की विशेष कृपा प्राप्त होती है।

प्रदोष व्रत के बारे में:

प्रदोष व्रत का अर्थ है प्रदोष काल में भगवान शिव की आराधना। यह समय सूर्यास्त और रात्रि के बीच का होता है, जब शिव जी की आराधना करने से विशेष फल मिलता है। प्रदोष व्रत को रखने वाले व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और सच्चे मन से भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए।

प्रदोष व्रत के नियम:

  1. स्नान और शुद्धि: व्रतधारी को सुबह स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए।
  2. निर्जला व्रत: इस दिन निर्जला व्रत रखने का प्रावधान है, लेकिन अगर यह संभव न हो तो फलाहार कर सकते हैं।
  3. पूजा और आराधना: प्रदोष काल में शिवलिंग का अभिषेक करके बेलपत्र, धतूरा, दूध, और गंगाजल चढ़ाएं।
  4. व्रत कथा सुनना: व्रत की कथा सुनना या पढ़ना आवश्यक है।
  5. सात्विक आहार: व्रत के दिन सात्विक आहार का ही सेवन करें।

प्रदोष व्रत के लाभ:

  1. आध्यात्मिक लाभ: भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और आध्यात्मिक उन्नति होती है।
  2. स्वास्थ्य लाभ: व्रत रखने से शारीरिक और मानसिक शुद्धि होती है।
  3. समृद्धि: आर्थिक स्थिति में सुधार और समृद्धि की प्राप्ति होती है।
  4. शांति: मन और जीवन में शांति का अनुभव होता है।

प्रदोष व्रत कितने रखने चाहिए?

प्रदोष व्रत की संख्या व्यक्ति की श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर करती है। कुछ लोग वर्षभर के सभी प्रदोष व्रत रखते हैं, जबकि कुछ विशेष अवसरों पर ही रखते हैं। इसे नियमित रूप से रखने पर भगवान शिव की विशेष कृपा मिलती है।

प्रदोष व्रत मंत्र:

प्रदोष व्रत के दौरान निम्नलिखित मंत्रों का जाप करना लाभकारी होता है:

  1. महामृत्युंजय मंत्र:ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥
  2. शिव पंचाक्षर मंत्र:ॐ नमः शिवाय॥

प्रदोष व्रत की कथा और विधि:

प्रदोष व्रत की कथा में चंद्रदेव के जीवन की महत्वपूर्ण घटना का वर्णन है। एक समय चंद्रमा को क्षय रोग हो गया था, तब उन्होंने भगवान शिव की आराधना की और प्रदोष व्रत रखा। शिव जी ने प्रसन्न होकर उन्हें रोगमुक्त कर दिया। इसी तरह से प्रदोष व्रत की कथा सुनकर भक्तों को शिव जी की कृपा प्राप्त होती है।

व्रत की विधि:

  1. प्रदोष के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और शुद्ध वस्त्र धारण करें।
  2. दिनभर उपवास रखें और शाम को प्रदोष काल में शिवलिंग की पूजा करें।
  3. पूजा के दौरान शिवलिंग पर दूध, दही, घी, शहद और गंगाजल से अभिषेक करें।
  4. शिव जी को बेलपत्र, धतूरा, आक के फूल और फल चढ़ाएं।
  5. शिव मंत्रों का जाप करें और प्रदोष व्रत की कथा सुनें।
  6. रात को आरती करके प्रसाद वितरित करें और व्रत का पारण करें।

प्रदोष व्रत भगवान शिव की आराधना का एक उत्तम मार्ग है, जिससे जीवन में सुख, शांति, और समृद्धि का आगमन होता है। इस व्रत को विधिपूर्वक करने से भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

योगिनी एकादशी 2024

मंगल – योगिनी एकादशी: महत्व, विधि और लाभ

परिचय

हिंदू धर्म के पवित्र त्योहारों में एकादशी का विशेष स्थान है। प्रत्येक माह में दो बार मनाई जाने वाली एकादशी तिथियों में से हर एक का अपना अनूठा महत्व और नियम होता है। इन्हीं में से एक है मंगल – योगिनी एकादशी, जिसे इसके आध्यात्मिक लाभों और भक्तों पर दिव्य कृपा बरसाने के लिए अत्यंत पूजनीय माना जाता है। यह पवित्र दिन भगवान विष्णु को समर्पित है, और इस दिन व्रत रखने से आत्मा की शुद्धि होती है, पिछले पापों का नाश होता है और समृद्धि तथा कल्याण की प्राप्ति होती है।

योगिनी एकादशी कब है?

2024 में योगिनी एकादशी 2 जुलाई को मनाई जाएगी। एकादशी तिथि का प्रारम्भ 1 जुलाई 2024 को सुबह 10:26 बजे से होगा और यह तिथि 2 जुलाई 2024 को सुबह 08:42 बजे समाप्त होगी।

क्या है मंगल – योगिनी एकादशी?

मंगल योगिनी एकादशी हिंदू माह आषाढ़ के कृष्ण पक्ष (अंधकार पक्ष) के 11वें दिन (एकादशी) को पड़ती है, जो सामान्यतः जून या जुलाई में आता है। इस एकादशी का नाम “योगिनी” इस कारण पड़ा क्योंकि यह आध्यात्मिक तपस्या और उच्च चेतना की खोज से संबंधित है। “मंगल” शब्द इसका शुभ और सकारात्मक ऊर्जा को दर्शाता है।

योगिनी एकादशी की कथा

योगिनी एकादशी की कथा ब्रह्म वैवर्त पुराण में वर्णित है। इस कथा में एक राजा कुबेर का उल्लेख है, जो भगवान शिव के महान भक्त थे और उनके एक माली का नाम हेममाली था। हेममाली का कार्य मानसरोवर झील से फूल लाकर भगवान शिव की पूजा के लिए समर्पित करना था। लेकिन हेममाली अपनी सुंदर पत्नी में अक्सर खोया रहता था, जिससे वह अपने कर्तव्यों में लापरवाही करने लगा।

एक दिन, समय पर फूल न पहुँचाने के कारण राजा कुबेर क्रोधित हो गए और हेममाली को कोढ़ से ग्रसित होने और अपनी पत्नी से अलग होने का श्राप दिया। श्रापित और पश्चातापी हेममाली वन में भटकते हुए ऋषि मार्कंडेय से मिले। ऋषि ने उन्हें योगिनी एकादशी का व्रत करने की सलाह दी। ऋषि की सलाह मानकर हेममाली ने पूर्ण भक्ति और निष्ठा से व्रत किया, जिससे उनका श्राप समाप्त हो गया और वे अपनी पत्नी से पुनः मिल सके।

व्रत विधि और अनुष्ठान

मंगल योगिनी एकादशी का पालन करते समय कई नियम और अनुष्ठान होते हैं जो शरीर और आत्मा को शुद्ध करने के लिए किए जाते हैं। यहाँ मुख्य अनुष्ठानों का विवरण दिया गया है:

1. व्रत

व्रत इस एकादशी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। भक्त अन्न, दाल और कुछ सब्जियों से परहेज करते हैं। कुछ लोग केवल पानी पर निर्भर रहते हैं, जबकि कुछ फल, दूध और सूखे मेवे का सेवन करते हैं।

2. प्रार्थना और पूजा

भक्त प्रातःकाल जल्दी उठकर स्नान करते हैं। इसके बाद भगवान विष्णु की विधिपूर्वक पूजा करते हैं, जिसमें तुलसी के पत्ते, फूल, धूप और दीप शामिल होते हैं। विष्णु सहस्रनाम और अन्य विष्णु संबंधित स्तोत्रों का पाठ करना आम प्रचलन है।

3. रात्रि जागरण

कई भक्त पूरी रात जागते हैं, भजन गाते हैं और भगवान विष्णु का ध्यान करते हैं। यह अभ्यास आध्यात्मिक लाभ बढ़ाने और व्रत की सफलता सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है।

4. दान पुण्य

इस दिन जरूरतमंदों को दान देना और ब्राह्मणों को भोजन कराना अत्यंत शुभ माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन किए गए दान-पुण्य से अत्यधिक आशीर्वाद और पुण्य प्राप्त होता है।

मंगल योगिनी एकादशी के लाभ

मंगल योगिनी एकादशी के पालन से कई आध्यात्मिक और भौतिक लाभ प्राप्त होते हैं:

1. पापों का नाश

इस दिन व्रत और सच्ची भक्ति से पापों का नाश होता है, जिससे आत्मा की शुद्धि होती है।

2. स्वास्थ्य लाभ

भोजन से परहेज या सरल आहार का सेवन शरीर को शुद्ध करता है और स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है।

3. आध्यात्मिक उन्नति

पूजा और प्रार्थना से आध्यात्मिक जागरूकता बढ़ती है और व्यक्ति भगवान के करीब पहुंचता है।

4. समृद्धि और कल्याण

इस एकादशी का पालन करने से समृद्धि, शांति और कल्याण की प्राप्ति होती है।

मंगल योगिनी एकादशी का व्रत विधि

मंगल योगिनी एकादशी का व्रत विधि के अनुसार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस व्रत को सही तरीके से करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जाते हैं:

1. व्रत की तैयारी

एकादशी व्रत की तैयारी दशमी तिथि की रात से ही शुरू हो जाती है। इस दिन शुद्ध और सात्विक भोजन का सेवन करना चाहिए और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि बुरे विचारों से दूर रहना चाहिए।

2. प्रातःकाल स्नान

एकादशी के दिन प्रातःकाल जल्दी उठकर स्नान करना चाहिए। शुद्ध वस्त्र धारण करके भगवान विष्णु की पूजा का संकल्प लेना चाहिए।

3. भगवान विष्णु की पूजा

पूजा स्थान को शुद्ध करके भगवान विष्णु की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। उन्हें पुष्प, धूप, दीप, और नैवेद्य अर्पित करें। विष्णु सहस्रनाम या भगवान विष्णु के किसी भी प्रिय मंत्र का जाप करें।

4. व्रत का पालन

इस दिन अन्न, दाल और कुछ सब्जियों का सेवन न करें। केवल फल, दूध, सूखे मेवे या जल ग्रहण करें। कुछ भक्त निर्जल व्रत भी करते हैं।

5. धार्मिक कार्य और भजन कीर्तन

दिनभर धार्मिक ग्रंथों का पाठ करें और भगवान विष्णु के भजन गाएं। रात्रि में जागरण करके भजन कीर्तन करें और भगवान का ध्यान करें।

6. दान पुण्य

दीन-हीनों को दान देना और ब्राह्मणों को भोजन कराना अत्यंत शुभ माना जाता है। इससे व्रत का पूर्ण फल प्राप्त होता है।

7. व्रत का पारण

द्वादशी तिथि को व्रत का पारण करना चाहिए। प्रातःकाल स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करें और ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं अन्न ग्रहण करें।

निष्कर्ष

मंगल योगिनी एकादशी का व्रत एक अद्वितीय धार्मिक और आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है। भगवान विष्णु की कृपा से इस दिन व्रत रखने से व्यक्ति के जीवन में पवित्रता, शांति और समृद्धि आती है। यह व्रत आत्मा की शुद्धि के साथ-साथ जीवन के विभिन्न पहलुओं में भी सकारात्मक परिवर्तन लाता है। हर भक्त को इस पावन दिन को पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाना चाहिए, जिससे भगवान विष्णु की अनुकंपा प्राप्त हो और जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का वास हो।

Black Magic

The Mystique and Reality of Black Magic: Techniques, Practices, and Supplements

Black magic has always intrigued and terrified in equal measure. Its allure comes from its association with the mystical, the unknown, and the powerful. In this blog, we’ll delve into the world of black magic, exploring its definition, techniques, practices in Indian traditions, and even modern supplements that claim to harness its power.

What is Black Magic?

Black magic, often referred to as dark magic, involves the use of supernatural powers or magic for evil and selfish purposes. Its roots trace back to ancient times and various cultures, where it has been used to invoke malevolent forces, curse enemies, and manipulate outcomes in favor of the practitioner. Unlike white magic, which is intended for benevolent purposes, black magic is associated with harmful intentions and unethical practices.

Black Magic Techniques

Black magic techniques vary widely depending on the cultural context and the desired outcome. Here are some common methods:

  1. Spells and Incantations: These are verbal formulas that invoke spirits, deities, or other supernatural forces to carry out the practitioner’s will. Spells can range from simple chants to complex rituals.
  2. Hexes and Curses: These are specific types of spells intended to cause harm to others. They can be directed at individuals, families, or even entire communities.
  3. Sympathetic Magic: This technique involves using objects or representations (like dolls or photographs) to affect a person from a distance. The principle is that what is done to the object will be experienced by the person it represents.
  4. Divination and Scrying: These practices involve seeking knowledge of the future or the unknown, often through the use of tools like tarot cards, crystal balls, or mirrors.
  5. Necromancy: This is the practice of communicating with the dead to predict the future or obtain hidden knowledge. It’s one of the most feared and misunderstood black magic practices.

Indian Black Magic

India has a rich and complex tradition of black magic, known locally as “Kala Jadoo.” This form of magic often incorporates elements of Hinduism, Tantrism, and ancient tribal rituals. Some common practices include:

  1. Aghori Practices: The Aghori sadhus are known for their extreme rituals, which may involve meditation in cremation grounds, consumption of human remains, and other taboo activities intended to break the cycle of reincarnation.
  2. Tantric Rituals: Tantra in India has a dual aspect; while some practices are benign, others are considered dark and involve invoking powerful deities for personal gain or revenge.
  3. Mantra and Yantra: Specific mantras (sacred chants) and yantras (geometric designs) are used to invoke and control spiritual entities. These are often performed in secret and require precise knowledge and skill.
  4. Spirit Possession: Invoking spirits to possess a person or object is a common aspect of Indian black magic. This is often done to control or manipulate others.

Black Magic Supplements

In recent years, the market has seen a rise in supplements that claim to enhance one’s magical abilities or provide protection against black magic. These supplements often include a blend of herbs, minerals, and other natural ingredients believed to have mystical properties. Here are a few examples:

  1. Ashwagandha: Often referred to as Indian ginseng, this herb is believed to enhance mental clarity and psychic abilities.
  2. Shilajit: A mineral-rich resin used in traditional Ayurvedic medicine, Shilajit is thought to boost energy, improve focus, and offer protection against negative energies.
  3. Tulsi (Holy Basil): Known for its purifying properties, Tulsi is used to ward off evil spirits and cleanse the aura.
  4. Mugwort: This herb is used in various magical traditions for protection, prophecy, and enhancing psychic abilities.
  5. Black Tourmaline: While not a supplement, this crystal is frequently used in protective rituals to absorb negative energies and provide a shield against black magic attacks.

Conclusion

Black magic remains a fascinating and controversial topic. Its practices and beliefs vary widely across cultures, yet its allure continues to captivate those interested in the mystical and the unknown. Whether approached with reverence, fear, or scepticism, the world of black magic offers a glimpse into humanity’s age-old quest for power and understanding beyond the physical realm. As always, it’s crucial to approach such practices with respect and caution, acknowledging the profound impact they can have on individuals and communities.

Tantra

Tantra: An Ancient Path to Enlightenment

Tantra is a profound spiritual tradition that has been practiced for thousands of years. Originating in India, it encompasses a wide range of practices and beliefs designed to help individuals achieve spiritual awakening and enlightenment. Unlike many religious or spiritual paths that emphasize renunciation, Tantra celebrates the physical world and teaches that spiritual enlightenment can be achieved through embracing all aspects of life.

Tantra Meaning

The word “Tantra” comes from the Sanskrit root words “tan” (to expand) and “tra” (liberation). Thus, Tantra means “the path of expansion and liberation.” It aims to expand the consciousness and liberate the practitioner from the limitations of the ego and physical world. Tantra is often misunderstood as solely being about sexual practices, but this is a narrow and incomplete view. While it does include sacred sexuality, its scope is much broader, encompassing meditative practices, rituals, and a philosophy that views every aspect of life as an opportunity for spiritual growth.

What is Tantra?

So, what is Tantra? At its core, Tantra is a system that integrates various techniques to help practitioners experience the divine in every aspect of life. This includes:

  1. Meditation and Visualization: Techniques to quiet the mind and connect with deeper levels of consciousness.
  2. Mantras: Sacred sounds and phrases repeated to invoke spiritual energy and focus the mind.
  3. Rituals and Ceremonies: Practices that create a sacred space for connecting with divine energies.
  4. Yoga and Physical Postures: Methods to align and balance the body’s energy centers, or chakras.
  5. Sacred Sexuality: Practices that use sexual energy as a powerful force for spiritual transformation.

Is Tantra Dangerous?

A common question is, “Is Tantra dangerous?” The answer is complex. Authentic Tantra, practiced with respect and proper guidance, is not dangerous. However, like any powerful spiritual practice, it requires a knowledgeable teacher and a sincere, respectful approach. Misunderstandings or improper practices can lead to psychological or emotional imbalances. Therefore, it’s crucial to learn from reputable sources and practitioners who honor the tradition’s integrity.

Definition of Tantra

The definition of Tantra can vary widely depending on the context. Broadly speaking, Tantra is a holistic spiritual system that integrates the body, mind, and spirit. It acknowledges the divine presence in all aspects of life and uses a variety of techniques to awaken and expand consciousness. In essence, Tantra teaches that enlightenment is not separate from the material world but is found through fully embracing and transcending it.

The Benefits of Practicing Tantra

Practicing Tantra offers numerous benefits, including:

  • Spiritual Growth: Deepening your connection with the divine and expanding your consciousness.
  • Personal Transformation: Overcoming limiting beliefs and patterns to achieve a more fulfilled life.
  • Improved Relationships: Enhancing intimacy and connection with your partner.
  • Emotional Healing: Releasing past traumas and emotional blockages.
  • Physical Well-being: Balancing the body’s energies for improved health and vitality.

Conclusion

Tantra is a rich and multifaceted spiritual tradition that offers profound insights and practices for those seeking a deeper connection with themselves and the universe. By understanding its true meaning and dispelling common misconceptions, individuals can explore this ancient path with respect and awareness, unlocking its transformative potential.

If you’re interested in exploring Tantra, ensure you seek guidance from experienced practitioners who can provide the knowledge and support needed for a safe and enriching journey. Whether through meditation, rituals, or sacred sexuality, Tantra offers a path to expansion and liberation that can enhance every aspect of your life.

Konark Jyotish

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At Konark Jyotish, we specialize in a wide range of astrological services, including Vedic astrology, horoscope readings, birth chart analysis, numerology, palmistry, and more. Our intuitive and knowledgeable astrologers use time-honored techniques to deliver profound insights tailored to your unique circumstances.

At Konark Jyotish, we believe that everyone should have access to the profound insights and guidance that astrology offers. Our mission is to provide comprehensive and accurate astrological services at no cost, helping individuals navigate life’s complexities with confidence and clarity. Whether you are new to astrology or a seasoned enthusiast, Konark Jyotish is here to support you on your journey.

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Opal Stone

Opal Stone –ओपल: सौभाग्य और समृद्धि का रत्न

ओपल रत्न अपनी चमकदार रंगत और अनोखे आकर्षण के लिए जाना जाता है। ज्योतिष शास्त्र में इसे शुक्र ग्रह से जुड़ा रत्न माना जाता है। माना जाता है कि ओपल धारण करने से प्रेम, सौंदर्य, धन-दौलत और सफलता प्राप्त होती है।

ओपल के रंग और प्रकार: Types of Opal & Its Colors

ओपल विभिन्न रंगों में पाए जाते हैं, जिनमें सफेद, नीला, हरा, गुलाबी, काला और आग का रंग शामिल हैं।

सफेद ओपल: यह सबसे आम प्रकार का ओपल है और शुद्धता और निर्दोषता का प्रतीक है।

नीला ओपल: यह बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है।

हरा ओपल: यह समृद्धि और विकास का प्रतीक है।

गुलाबी ओपल: यह प्रेम और स्नेह का प्रतीक है।

काला ओपल: यह रहस्य और शक्ति का प्रतीक है।

आग का रंग ओपल: यह उत्साह और ऊर्जा का प्रतीक है।

ओपल के फायदे: Benefits of Opal

प्रेम और रिश्ते: ओपल रत्न प्रेम और संबंधों में सुधार लाने में मदद करता है। यह असुरक्षा और ईर्ष्या को दूर करता है और विश्वास और सहानुभूति को बढ़ावा देता है।

धन-दौलत: ओपल रत्न धन और समृद्धि प्राप्त करने में मदद करता है। यह नए अवसरों को आकर्षित करता है और व्यावसायिक सफलता में वृद्धि करता है।

सौंदर्य: ओपल रत्न सौंदर्य और आकर्षण को बढ़ाता है। यह त्वचा को स्वस्थ और चमकदार बनाता है और बालों को मजबूत और घना बनाता है।

मानसिक स्वास्थ्य: ओपल रत्न तनाव और चिंता को दूर करने में मदद करता है। यह मन को शांत करता है और सकारात्मक सोच को बढ़ावा देता है।

आत्मविश्वास: ओपल रत्न आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान को बढ़ाता है। यह हिम्मत और निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है।

ओपल धारण करने की विधि: Process to wear Opal

ओपल रत्न को शुक्रवार के दिन सोने या चांदी की अंगूठी में धारण करना चाहिए।

धारण करने से पहले रत्न को गंगाजल या दूध में एक घंटे के लिए भिगो दें।

ॐ शुक्राय नमः मंत्र का जाप करते हुए रत्न को धारण करें।

ओपल रत्न को तर्जनी उंगली या मध्यमा उंगली में धारण करना चाहिए।

ओपल किसे धारण करना चाहिए: Who should wear Opal

जिनकी कुंडली में शुक्र ग्रह कमजोर है, उन्हें ओपल रत्न धारण करना चाहिए।

जो लोग प्रेम और संबंधों में समस्याओं का सामना कर रहे हैं, वे ओपल रत्न धारण कर सकते हैं।

जो लोग धन और समृद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, वे ओपल रत्न धारण कर सकते हैं।

जो लोग तनाव और चिंता से ग्रस्त हैं, वे ओपल रत्न धारण कर सकते हैं।

जो लोग आत्मविश्वास की कमी से जूझ रहे हैं, वे ओपल रत्न धारण कर सकते हैं।

ओपल रत्न पहनने से जुड़ी कुछ रोचक बातें (Interesting Facts about Wearing Opal)

ओपल रत्न सदियों से लोकप्रिय रहा है। इसके इतिहास और ज्योतिषीय महत्व के बारे में जानने के बाद, आइए ओपल पहनने से जुड़ी कुछ रोचक बातें जानते हैं:

अक्टूबर जन्मपत्थर: ओपल को अक्टूबर महीने का जन्मपत्थर माना जाता है। इसलिए, इस महीने में जन्मे लोगों के लिए ओपल विशेष रूप से शुभ माना जाता है।

हॉलीवुड का चहेता: ओपल रत्न सदियों से हॉलीवुड सितारों के बीच भी काफी लोकप्रिय रहा है। ऐसा माना जाता है कि यह आकर्षण और प्रतिष्ठा को बढ़ाता है।

रानी विक्टोरिया का पसंदीदा: इतिहास में, रानी विक्टोरिया को ओपल रत्नों का बहुत शौक था। उनके पास ओपल से बने कई आभूषण थे।

अशुभ मान्यताएं: ओपल को कभी-कभी दुर्भाग्य का रत्न माना जाता है। हालांकि, ज्योतिष शास्त्र में इसका कोई आधार नहीं है। यह मान्यता मुख्य रूप से एक मिथक है।

ओपल कहां से खरीदें? (Where to Buy Opal)

ओपल आसानी से बाजार में मिल जाता है, लेकिन असली रत्न ढूंढना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इसलिए किसी विश्वसनीय जौहरी या ज्योतिषी से ही इसे खरीदें।

ज्योतिषीय सलाह जरूरी (Consult a Jyotishi)

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि रत्न धारण करने से पहले ज्योतिषी से सलाह लेना हमेशा उचित होता है। हर किसी की जन्मकुंडली अलग होती है और ओपल सभी के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है। ज्योतिषी आपकी कुंडली का अध्ययन करके बताएंगे कि ओपल आपके लिए लाभदायक होगा या नहीं और कौन सी धातु और उंगली में इसे धारण करना आपके लिए सबसे उपयुक्त रहेगा।

अंत में (In Conclusion)

ओपल अपनी खूबसूरती और ज्योतिषीय महत्व के कारण एक लोकप्रिय रत्न है। उम्मीद है कि इस ब्लॉग पोस्ट से आपको ओपल रत्न के बारे में उपयोगी जानकारी मिली होगी। यदि आप ओपल पहनने का विचार कर रहे हैं, तो पहले किसी ज्योतिषी से सलाह लें और अपनी  जन्मकुंडली के आधार पर ही निर्णय लें।

सकारात्मक ऊर्जा के लिए (For Positive Energy)

इस ब्लॉग पोस्ट को पढ़ने के लिए धन्यवाद! ओपल के बारे में और जानने के लिए आप हमें कमेंट्स में बता सकते हैं। अगर आपने कभी ओपल पहना है तो अपने अनुभवों को भी शेयर करें। हमेशा सकारात्मक रहें और अपने जीवन में शुभता लाएं!

Lajvart

लाजवर्त: Lajvart

लाजवर्त, जिसे अंग्रेजी में लैपिस लाजुली (Lapis Lazuli) के नाम से भी जाना जाता है, एक अर्ध-कीमती रत्न है। शनि ग्रह के नीलम रत्न के विकल्प के रूप में इसे धारण किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र में लाजवर्त की व्याख्या आकाश के सितारों से की जाती है। लाजवर्त जिसका एक नाम इंग्लिश में लैपिस लाजुली (Lapis Lazuli )  है।  यह एक उपरत्न है जिसे शनि ग्रह  के रत्न नीलम के उपरत्न रुप में धारण किया जाता है।  ज्योतिष में लाजवर्त की व्याख्या आसमान के सितारों से की जाती है।  इस उपरत्न का रंग गहरा नीला होता है और इस पर  पीले रंग के धब्बे भी पाए जाते हैं जिसे पाइराइट कहते है। 

लाजवर्त न केवल ग्रह की शांति हेतु उपयोग होता है अपितु इस रत्न का  उपयोग सोने और चाँदी के  सुंदर- सुन्दर  आभूषण बनाने में भी किया जाता रहा है।  लाजवर्त स्टोन  का उपयोग प्राचीन समय से हो रहा है जिसका प्रमाण पुराणी समय की अनेक सभ्यताओं में देखा जाता रहा है।  इसका उपयोग न केवल  भारतीय प्राचीन संस्कृति में ही था, अपितु इसका उपयोग सिंधु घाटी की सभ्यता में मिले अवशेषों में भी देखा गया है।  इसके  सुन्दर चमकदार रंग के कारण ही यह रत्न इतना बहुमूल्य रहा है।  भारतीय ज्योतिष शास्त्र में इसे नव रत्नों में स्थान दिया गया है।

लाजवर्त स्टोन के गुण-The qualities of a Lajwart stone

इस उपरत्न में ग्रहो के अलौकिक गुणों को बढा़ने की अदभुत क्षमता है।  इस उपरत्न से जातक की  उदासी का अंत होता है और एक तरह से  बुखार की रोकथाम में भी इस उपरत्न का उपयोग किया जा सकता है।  यह रत्न जातक को  नकारात्मक भावनाओं को दूर रखता है, यह गले संबंधी विकारों को दूर करता है और  यह उपरत्न उन व्यक्तियों के लिए भी अच्छा माना जाता है जो मधुमेह ( डायबिटिज ) की बीमारी से ग्रसित है।  यह स्टोन व्यक्ति की सहनशक्ति बढा़ने में भी सहायक होता है।

लाजवर्त के अलौकिक गुण-The mystical qualities of Lajwart

इस उपरत्न को धारण करने से जातक की मानसिक क्षमता का विकास होता है। उसके मस्तिष्क के  अंदर शांति बनी रहती है।  मस्तिष्क के अंदर किसी भी निर्णय को लेने में स्पष्टता रहती है जातक के पुरुषार्थ का विकास होता है। ये उपरत्न अध्यापन के कार्य से जुडे़ लोगो की  क्षमताओं में वृद्धि करता है जिससे  वह अपने कार्य पर अपना पूर्ण ध्यान केन्द्रित करते हैं। ये रत्न जातक की रचनात्मकता  और आत्म अभिव्यक्ति में वृद्धि करता है. यह उपरत्न धारणकर्त्ता के तनाव को दूर करता है और आध्यात्म में वृद्धि करता है. यह उनकी भी सहायता करता है जो व्यक्ति जीवन के सभी सूक्ष्म मूल्यों को समझते हैं.

लाजवर्त की विशेषताएं:Qualities of Lajwart

रंग: इसका रंग गहरा नीला होता है, जिस पर पीले रंग के धब्बे भी पाए जाते हैं जिन्हें पाइराइट कहते हैं।

उपलब्धता: यह मुख्य रूप से अफगानिस्तान, साइबेरिया, म्यांमार और कैलिफोर्निया में पाया जाता है।

विशेष: प्राचीन काल से ही इसका उपयोग सुंदर आभूषण बनाने में किया जाता रहा है।

महत्व: भारतीय ज्योतिष शास्त्र में इसे नव रत्नों में स्थान दिया गया है।

लाजवर्त क्या है: What is Lajvart

यह कई प्रकार की होती है। लाजावर्त नाम का एक पत्थर भी होता है। लाजावर्त या लाजवर्द मणि का रंग मयूर की गर्दन की भांति नील-श्याम वर्ण के स्वर्णिम छींटों से युक्त होता है। यह मणि भी प्राय: कम ही पाई जाती है, लेकिन पत्‍थर मिलता है। इसके नाम से कई नकली पत्‍थर भी बाजार में मिलते हैं।

नीलम की तरह यह भी नीले रंग का होता है। गाढ़े नीले रंग का लैपिस (लाजावर्त) ज्‍यादा अच्‍छा माना जाता है बशर्ते इसमें हरे या भूरे रंग के व्‍यवस्‍थ‍ित पैटर्न हों।

लाजवर्त और राहु: Lajvart & Rahu

लाजवर्त पहनने से व्यक्ति की एकाग्रता बढ़ती है। -इस रत्न को पहनने से बुद्धि और विवेक बढ़ता है। इसलिए विद्यार्थियों के लिए यह रत्न शुभ माना गया है। -रत्न शास्त्र के अनुसार, लाजवर्त धारण करने से पितृ दोष और राहु दोष से मुक्ति मिलती है।

लाजवर्त के फायदे: Benifits of Lajvart

ग्रहों की शांति: यह रत्न शनि ग्रह को मजबूत करता है और कुंडली में ग्रहों की शांति लाता है।

मानसिक शांति: लाजवर्त धारण करने से मन शांत रहता है और नकारात्मक विचारों से मुक्ति मिलती है।

एकाग्रता: यह रत्न एकाग्रता और स्मरण शक्ति बढ़ाता है।

रोगों से बचाव: लाजवर्त बुखार, गले के रोग और मधुमेह जैसी बीमारियों से बचाता है।

आत्मविश्वास: यह रत्न आत्मविश्वास बढ़ाता है और पुरुषार्थ का विकास करता है।

रचनात्मकता: लाजवर्त रचनात्मकता और कल्पना शक्ति को बढ़ाता है।

आध्यात्मिकता: यह रत्न आध्यात्मिकता में वृद्धि करता है और तनाव को दूर करता है।

लाजवर्त धारण करने की विधि: Process to Wear Lajvart Stone

लाजवर्त को शनिवार के दिन चांदी की अंगूठी या लॉकेट में बनवाकर धारण करना चाहिए।

इसे दायें हाथ की मध्यमा उंगली में पहनना शुभ माना जाता है।

धारण करने से पहले इसे सरसों या तिल के तेल में पांच घंटे के लिए भिगोकर रखें।

लाजवर्त किसे धारण करना चाहिए: Who Should wear Lajvart

जिनकी कुंडली में शनि ग्रह कमजोर है, वे लाजवर्त धारण कर सकते हैं।

विद्यार्थी, शिक्षक और लेखक के लिए भी यह रत्न लाभकारी माना जाता है।

जो लोग मानसिक शांति और एकाग्रता चाहते हैं, वे भी लाजवर्त धारण कर सकते हैं।

लाजवर्त पहनने की सावधानियां: Precaution while wearing Lajvart

जिनकी कुंडली में मंगल ग्रह कमजोर है, उन्हें लाजवर्त धारण नहीं करना चाहिए।

गर्भवती महिलाओं को भी लाजवर्त धारण करने से बचना चाहिए।

रत्न धारण करने से पहले ज्योतिषी से सलाह जरूर लें।

असली लाजवर्त की पहचान कैसे करें: How to Indentify Real Lajvart

असली लाजवर्त का रंग गहरा नीला होता है।

इसमें पीले रंग के धब्बे समान रूप से फैले होते हैं।

रत्न चमकदार और स्पष्ट होता है।

लाजवर्त कहाँ – कहाँ  मिलता है ?

लाजवर्त  मुख्य रूप से अफ़गा़निस्तान, साइबेरिया, म्यांमार और  कैलिफ़ोर्निया  में पाया जाता है. इसके साथ ही यह चिली देश में भी यह पाया जाता है. लाजवर्त रत्न को फरवरी माह में पैदा होने वाले लोगों के लिए अनुकूल माना गया है।

कौन धारण करे ? Who Should wear Lajvart

जिन व्यक्तियों की कुण्डली में शनि ग्रह शुभ भावों के स्वामी होकर निर्बल अवस्था में स्थित हैं वह इस उपरत्न को धारण कर सकते हैं।  इसे धारण करने से पहले  किसी अच्छे ज्योतिष से सलहा जरूर ले।  ताकि आपको किसी तरह की परेशानी का सामना न करना पड़े। 

लाजवर्त पहनने की विधि: लाजवर्त को शनिवार के दिन चांदी की अंगूठी या लॉकेट में बनवाकर धारण करना चाहिए। इस रत्न को माला और ब्रेसलेट भी पहना जा सकता है। इसे दायें हाथ की मध्यमा उंगली में धारण करना शुभ होता है। इसे धारण करने से पहले सरसों या तिल के तेल में पांच घंटे पहले डुबोकर रखें।

लाजवर्त किस दिन पहने: लाजवर्त को शनिवार के दिन चांदी की अंगूठी में पहनना शुभ माना गया है। नीलम रत्न : ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, शनि की महादशा, साढ़ेसाती और ढैय्या के अशुभ प्रभावों से बचने के लिए नीलम रत्न धारण करना बहुत लाभकारी माना जाता है। मान्यता है कि इससे स्वास्थ्य में आ रही दिक्कतें दूर होती हैं। मन की एकाग्रता बढ़ती है।

लाजवर्त रत्न के नुकसान: कुंडली में शनि और राहु नीच के अशुभ स्थित हों तो लाजवर्त को धारण न करें। साथ ही मंगल ग्रह भी अगर कुंडली में नकारात्मक स्थित है तो भी लाजवर्त धारण करने से बचें। या फिर शनि के साथ मंगल भी स्थित हों तो भी लाजवर्त नहीं पहनना चाहिए।

असली लाजवर्त की पहचान कैसे करें?

यह नीलम का उपरत्न है इसलिए नीलम की ही तरह इसका रंग भी नीला होता है। नीले रंग की आभा वाला लाजवर्त रत्न सबसे असरकारक माना जाता है। यदि इस रत्न की आभा गहरी नीली न हो और इसमें बैंगनी, हरे रंग की चमक दिख रही हो तो इसे असरदायक नहीं माना जाता।

लाजवर्त का इतिहास काफी लंबा है। आइए जानते हैं इससे जुड़े कुछ रोचक तथ्य:

प्राचीन सभ्यताओं का रत्न: लाजवर्त का इस्तेमाल हजारों सालों से किया जा रहा है। इसका प्रमाण हमें सिंधु घाटी सभ्यता और प्राचीन मिस्र की खुदाई में मिले अवशेषों से मिलता है।

सजावट का सामान: रत्न होने के साथ-साथ लाजवर्त का उपयोग प्राचीन काल में मूर्तियों, ताबीज और अन्य सजावटी सामान बनाने में भी किया जाता था।

फिरौन का श्रृंगार: प्राचीन मिस्र में लाजवर्त को मृत्यु के बाद के जीवन से जोड़ा जाता था। यहां तक कि कई फिरौन की ममीज को लाजवर्त से बने गहनों से सजाया गया था।

Peetambari Neelam

पीताम्बरी नीलम: Peetambari Neelam एक अनमोल रत्न, अद्वितीय शक्तियों का संगम

पीताम्बरी नीलम, रत्नों की दुनिया में एक अनमोल रत्न, जो अपनी अद्वितीय विशेषताओं और शक्तियों के लिए जाना जाता है। शास्त्रों में इसे अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इसमें दो शक्तिशाली रत्नों – नीलम (नीला पुखराज) और पीले पुखराज (पीला पुखराज) – की संयुक्त ऊर्जा समाहित होती है।

रंगों का अद्भुत संगम ( Peetambari Neelam)

पीताम्बरी नीलम का नाम ही इसकी खासियत बयां करता है। नीले और पीले रंग का अद्भुत मिश्रण इसे अन्य रत्नों से अलग बनाता है। ज्योतिष शास्त्र में, इन दोनों रंगों के संयोजन को “सद्भाव स्टोन” या “गंगा-जमुना स्टोन” के नाम से भी जाना जाता है।

उत्पत्ति: Origin of Pitambari Neelam

यह दुर्लभ रत्न मुख्य रूप से श्रीलंका, मेडागास्कर और तंजानिया में पाया जाता है। पीताम्बरी नीलम को अंगूठी या पेंडेंट के रूप में धारण किया जाता है।

ज्योतिषीय प्रभाव: Astrological Effects of Peetambari Neelam

ज्योतिष विद्या के अनुसार, पीताम्बरी नीलम कुंडली में शनि और बृहस्पति ग्रहों की ऊर्जा को संतुलित करने में सहायक होता है। इन ग्रहों से जुड़े विभिन्न पहलुओं, जैसे व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में सफलता, वित्तीय स्थिति में सुधार, और समग्र कल्याण में इसका विशेष महत्व माना जाता है।

पीताम्बरी नीलम के लाभ: Benefits of Peetambari Neelam

जीवन में स्थिरता और सफलता:

यह रत्न जीवन में स्थिरता और सफलता प्राप्त करने में मदद करता है।

वित्तीय समृद्धि:

पीताम्बरी नीलम धारण करने से वित्तीय स्थिति में सुधार होता है और धन प्राप्ति के अवसरों में वृद्धि होती है।

सुख-शांति और समृद्धि:

यह रत्न जीवन में सुख, शांति और समृद्धि लाने वाला माना जाता है।

स्वास्थ्य लाभ:

पीताम्बरी नीलम शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में सहायक होता है।

आध्यात्मिक उन्नति:

यह रत्न आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है और ध्यान और एकाग्रता में वृद्धि करता है।

ग्रहों का संतुलन:

पीताम्बरी नीलम शनि और बृहस्पति ग्रहों के नकारात्मक प्रभावों को कम करने में मदद करता है।

विवाह में सुख:

यह रत्न वैवाहिक जीवन में सुख और समृद्धि लाने वाला माना जाता है।

व्यवसाय में सफलता:

पीताम्बरी नीलम व्यावसायिक सफलता प्राप्त करने और करियर में उन्नति करने में सहायक होता है।

ध्यान देने योग्य बातें:

पीताम्बरी नीलम रत्न हमेशा किसी योग्य ज्योतिषी या रत्न विशेषज्ञ की सलाह के बाद ही धारण करना चाहिए।

रत्न की शुद्धता और गुणवत्ता का ध्यान रखना आवश्यक है।

रत्न को धारण करने से पहले उचित मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष: Cosnclusion

पीताम्बरी नीलम, अपनी अद्वितीय शक्तियों और लाभों के साथ, जीवन के विभिन्न पहलुओं में सकारात्मक बदलाव लाने वाला एक रत्न है। यदि आप भी अपने जीवन में सुख, समृद्धि और शांति प्राप्त करना चाहते हैं, तो पीताम्बरी नीलम आपके लिए एक उपयुक्त रत्न हो सकता है।

पीताम्बरी नीलम के बारे में कई रोचक बातें हैं, जिन पर हम चर्चा कर सकते हैं:

पीताम्बरी नीलम किसे धारण करना चाहिए? (Who Should Wear Pitambari Neelam?)

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, वृषभ, मिथुन, कन्या, तुला, धनु और मीन राशि के जातकों के लिए पीताम्बरी नीलम विशेष रूप से लाभदायक माना जाता है। हालांकि, किसी भी रत्न को धारण करने से पहले किसी ज्योतिषी से सलाह लेना हमेशा उचित होता है।

पीताम्बरी नीलम की देखभाल (Care for Pitambari Neelam)

अन्य रत्नों की तरह, पीताम्बरी नीलम की भी उचित देखभाल आवश्यक है। इसे कठोर रसायनों और अत्यधिक गर्मी से बचाना चाहिए। नियमित रूप से इसे हल्के गुनगुने पानी और हल्के साबुन से साफ करना चाहिए।

पीताम्बरी नीलम की कीमत (Cost of Pitambari Neelam)

पीताम्बरी नीलम की कीमत उसके आकार, रंग, कट और गुणवत्ता के आधार पर काफी हद तक भिन्न हो सकती है। एक ज्योतिषी या रत्न विशेषज्ञ से परामर्श करके आपको वर्तमान बाजार मूल्य का पता चल सकता है।

अंतिम विचार (Antim विचार – Final Thoughts)

पीताम्बरी नीलम रत्न ज्योतिष और आध्यात्मिक जगत में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह माना जाता है कि यह रत्न सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने में सहायक होता है। हालांकि, यह ध्यान रखना जरूरी है कि रत्न धारण करना ही सफलता का एकमात्र तरीका नहीं है। ज्योतिषीय सलाह के साथ-साथ कड़ी मेहनत और सकारात्मक दृष्टिकोण भी उतना ही महत्वपूर्ण है।


पीताम्बरी नीलम कौन पहन सकता है?

पीतांबरी नीलम कुंभ, मकर, धनु और मीन राशि के लोग पहन सकते हैं। लेकिन यहां हम ये देखना जरूरी होगा कि कुंडली में शनि या गुरु बृहस्पति नीच या शत्रु राशि में स्थित न हो। साथ ही कुंडली में गुरु बृहस्पति और शनि देव उच्च के स्थित हों तो पीतांबरी नीलम धारण कर सकते हैं।


पीतांबरी नीलम क्यों पहनते हैं?

पीतांबरी का सूर्य और बृहस्पति से सीधा संबंध है, इसलिए इस रत्न को धारण करने से व्यक्ति को जीवन के किसी भी क्षेत्र में अनुशासन और सटीक निर्णय लेने की रणनीति प्राप्त करने में मदद मिलेगी । ज्योतिषियों का दृढ़ विश्वास है कि यह बृहस्पति से ज्ञान प्रदान करता है और निर्णय और कौशल को बढ़ाता है।

आपको कैसे पता चलेगा कि नीलम काम कर रहा है या नहीं?

श्वास टेस्ट करें (Perform the breath test): नीलम को हाथ में लेकर इस पर अपने मुँह से भाप छोड़ें। अब गिनती गिने की इस भाप को कम होने में और पूरी तरह उड़ने में कितना समय लगता है। असली नग पर से भाप मात्र 1 या दो सेकंड में पूरी तरह उड़ जाती है जबकि आर्टिफिशियल नीलम पर से भाप को उड़ने में 5 सेकंड तक का समय लग सकता है।

नीलम पहनने ke बाद क्या नहीं खाना चाहिए?

रत्न धारण करने से पहले किसी ज्योतिषी से अपनी जन्मकुंडली अवश्य दिखवा लें. रत्न धारण करने के बाद इसे बार-बार उतारना नहीं चाहिए. अगर आपने नीलम रत्न धारण किया है तो शनिवार के दिन तामसिक भोजन और नशीले पदार्थों का सेवन न करें|


सबसे अच्छी नीलम कौन सी है?

ब्लू नीलम एक मेडागास्कर, तंजानिया, श्रीलंका, मयांमार, ऑस्ट्रेलिया और कश्मीर भारत से आता है। लेकिन अब तक का सबसे अच्छा नीला नीलम रत्न या बेहतरीन नीलम रतन कश्मीर, भारत और श्रीलंका नीले रंग के स्वर और अद्वितीय मखमली बनावट, कश्मीर और श्रीलंका नीलम से आता है।


नीलम कब नहीं पहनना चाहिए?

मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु और मीन राशि के लोगों को नीलम नहीं पहनना चाहिए। क्योंकि इस राशियों के स्वामी शनि देव से शत्रुता का भाव रखते हैं। इसलिए अगर आप नीलम धारण करेंगे तो करियर और कार्यक्षेत्र में कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। वहीं आकस्मिक धन की हानि हो सकती है।


नीलम कौन से धातु में पहने?

नीलम रत्न को पंचधातु में पहनना चाहिए. नीलम को बायें हाथ में सबसे छोटी अंगुली में पहनना चाहिए. नीलम को शनिवार मध्य रात्रि में धारण करना सबसे शुभ माना जाता है. नीलम रत्न को धारण करने से पहले अंगूठी को गंगाजल और गाय के कच्चे दूध से शुद्ध जरूर कर लें.

नीलम रत्न को जागृत कैसे करें?

रत्न का शम्मी के लकड़ी से 108 बार ” ॐ शन्नोदेवीरभिष्ट्यः आपोभवन्तुपीतये शंय्योरभिस्रवन्तुनः “मंत्र के उचारण के अभिषेक कीजिए। इससे रत्न जागृत होगा और सकारत्मक ऊर्जा प्रदान करेगा। नीलम धारण करने के पश्चात किसी को कोई झूठा आश्वासन न दीजिए नहीं तो दुष्परिणाम गंभीर होगा।

Business Based on Planets

Business Based on Planets

  1. पूर्व दिशा को सूर्य ग्रह की दिशा माना जाता है, यानी सूर्यदेव पूर्व दिशा के स्वामी हैं।
  2.  चंद्रमा वायव्य कोण, यानी उत्तर-पश्चिम दिशा के स्वामी है।
  3. मंगल ग्रह दक्षिण दिशा के स्वामी हैं।
  4. बुध ग्रह उत्तर दिशा के स्वामी हैं।
  5.  बृहस्पति, यानी गुरु ईशान कोण, यानी उत्तर-पूर्व दिशा के स्वामी हैं।
  6. शुक्र ग्रह आग्नेय कोण यानी दक्षिण-पूर्व दिशा के स्वामी है|
  7. शनि ग्रह पश्चिम दिशा के स्वामी हैं।

ग्रहों के अनुसार व्यापार :

सूर्य:

सरकारी: सरकारी नौकरी, उच्च पद, राजनीति, राजदूत

व्यापार: सोना, जौहरी, वित्त, प्रबंधन, चिकित्सा, दवाएं, अध्यापन, फल, वस्त्र, कृषि, बीमा, सरकारी मुखबिर

चंद्रमा:

जलीय: जल, पेय पदार्थ, दूध, डेयरी, खाद्य पदार्थ, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक, खनिज जल, चांदी, चावल, नमक, चीनी, पुष्प सज्जा, मोती, मूंगा, शंख, क्रॉकरी, सब्जी, वस्त्र, रेडीमेड वस्त्र, जादू, फोटोग्राफी, विदेश सेवा, औषधि, चिकित्सा, अनाज, लाल रंग, शहद, लकड़ी, प्लाईवुड, भवन निर्माण, सर्राफा, वानिकी, ऊन, ऊनी वस्त्र, पदार्थ विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, फोटोग्राफी, नाटक, फिल्म निर्देशन

मंगल:

सेना: सेना, पुलिस, अग्निशमन, बिजली, साहसिक कार्य, धातु, भूमि, रक्षा, खनिज, इलेक्ट्रिक, इलेक्ट्रॉनिक, मैकेनिक, ब्लड बैंक, शल्य चिकित्सा, रसायन, दवा विक्रेता, सिविल इंजीनियरिंग, शस्त्र निर्माण, बॉडी बिल्डिंग, खेल, खिलाड़ी, फायर ब्रिगेड, आतिशबाजी, बेकरी, कैटरिंग, हलवाई, होटल, रेस्तरां, फास्ट फूड, जुआ, मिट्टी के बर्तन, नाई, औजार, भट्ठी

बुध:

व्यापार: व्यापार, लेखन, ज्योतिष, प्रकाशन, चार्टर्ड एकाउंटेंट, शिक्षक, गणितज्ञ, वकील, ब्याज, पूंजी निवेश, शेयर बाजार, कंप्यूटर, लेखन, वाणी, एंकरिंग, शिल्पकला, काव्य रचना, पुरोहित, कथा वाचक, गायन, वैद्य, गणित, वनस्पति, बीज, पौधे, समाचार पत्र, दलाली, वाणिज्य, टेलीफोन, डाक, कोरियर, यातायात, पत्रकारिता, मीडिया, बीमा, संचार

बृहस्पति:

ज्ञान: धर्म, शिक्षा, कानून, राजनीति, बैंकिंग, प्रबंधन, शिक्षण, पुस्तकालय, प्रकाशन, पीले पदार्थ, सोना, संपादन, छपाई, कागज, व्याज, गृह निर्माण, फर्नीचर, गर्भ, खाद्य पदार्थ, वस्त्र, लकड़ी, फल, मिठाई, मोम, घी, किराना

शुक्र:

कला: कला, संगीत, अभिनय, सिनेमा, सजावट, ड्रेस डिजाइनिंग, मनोरंजन, फैशन, पेंटिंग, सौंदर्य, इत्र, गिफ्ट हाउस, चित्रकला, विवाह, महिलाएं, विलासिता, वाहन, परिवहन, सजावटी वस्तुएं, मिठाई, रेस्टोरेंट, होटल, सोना, चांदी, हीरा, जौहरी, वस्त्र निर्माता, पशु चिकित्सा

शनि:

शनि का भूमि क्षेत्र से विशेष संबंध है । शनि पृथ्वी के भीतर पाये जाने वाले पदार्थ का कारक है । लोहा संबन्धित कार्य , मशीनरी के कार्य , केमिकल प्रोडक्ट , ज्वलनशील तेल ( पैट्रोल, डीजल आदि ) , कुकिंग गैस , प्राचीन वस्तुएं , पुरातत्व विभाग , अनुसंधान कार्य , ज्योतिष कार्य , लोहे से संबंधित कच्ची धातु , कोयला , चमड़े का काम , जूते , अधिक श्रम वाला कार्य , नौकरी , मजदूरी , ठेकेदारी , दस्तकारी , मरम्मत के कार्य , लकड़ी का कार्य , मोटा अनाज , प्लास्टिक एवम रबर उद्योग , काले पदार्थ , स्पेयर पार्ट्स , भवन निर्माण सामग्री , पत्थर एवम चिप्स , ईट , शीशा , टाइल्स , राजमिस्त्री , बढ़ई , श्रम एवम समाज कल्याण विभाग , टायर उद्योग , पलम्बर , घड़ियों का काम , कबाड़ी का काम , जल्लाद , तेल निकालना , पी डब्लू डी , सड़क निर्माण , सीमेंट ।

शनि + गुरु + मंगल – इलेक्ट्रिक इंजिनियर ।

शनि + बुध + गुरु – मेकेनिकल इंजीनियर ।

शनि + शुक्र – पत्थर की मूर्ति ,

राहु:

गुप्त: कम्प्यूटर, बिजली, अनुसंधान, मशीन, जासूसी, गुप्त कार्य, कीटनाशक, दवाएं, पहलवानी, सट्टा, जुआ, जहरीली दवाएं, चमड़ा

केतु:

आध्यात्मिक: धर्म, आध्यात्मिक कार्य, रहस्यमय विज्ञान, समाज सेवा

आपके लिए सही कैरियर का चुनाव कैसे करें?

ज्योतिष किसी के कैरियर की सफलता का एकमात्र कारक नहीं है। हालाँकि, यह आपके जन्मजात कौशल और झुकाव को उजागर करने में मदद कर सकता है। इस लेख में बताए गए व्यापारों की सूची का उपयोग करके, आप उन क्षेत्रों की पहचान कर सकते हैं जो आपकी रुचियों के साथ संरेखित हों। अगला कदम उन क्षेत्रों में अपने कौशल का विकास करना और उस क्षेत्र में सफल होने के लिए आवश्यक शिक्षा और अनुभव प्राप्त करना है।

अतिरिक्त टिप्स:

  1. अपने जन्मपत्री का विश्लेषण करवाएं ताकि यह पता चल सके कि कौन से ग्रह आपकी राशि पर सबसे अधिक प्रभाव डालते हैं।
  2. उन क्षेत्रों में स्वयं को शिक्षित करें जो आपकी रुचि रखते हैं।

यह लेख आपको ग्रहों और उनसे जुड़े व्यवसायों के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी प्रदान करता है। आपको यह मार्गदर्शन कर सकता है कि आप अपनी ज्योतिषीय प्रोफ़ाइल के आधार पर किस क्षेत्र में सफल हो सकते हैं।

बुद्ध पूर्णिमा 2024

बुद्ध पूर्णिमा 2024: ज्ञान और मोक्ष का पावन पर्व

हिंदू धर्म में पूर्णिमा तिथि को अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है। वैशाख मास की पूर्णिमा (वैशाख पूर्णिमा 2024) को बुद्ध पूर्णिमा और बुद्ध जयंती के नाम से जाना जाता है। यह पर्व हिंदू और बौद्ध दोनों ही धर्मों के अनुयायियों द्वारा बड़े उत्साह से मनाया जाता है।

बुद्ध पूर्णिमा का महत्व अनेक स्तरों पर है। यह भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण का त्रिवेणी संगम है।

बुद्ध पूर्णिमा क्यों मनाई जाती है ? (Buddha Purnima Significance)

बुद्ध पूर्णिमा पर भगवान बुद्ध का जन्म, सत्य का ज्ञान और महापरिनिर्वाण के तौर पर महत्वपूर्ण मानी जाती है. बुद्ध पूर्णिमा का संबंध बुद्ध के साथ केवल जन्म भर का नहीं है बल्कि इसी पूर्णिमा तिथि को वर्षों वन में भटकने कठोर तपस्या करने के पश्चात बोधगया में बोधिवृक्ष नीचे बुद्ध को सत्य का ज्ञान हुआ.

वैशाख पूर्णिमा के दिन ही कुशीनगर में उनका महापरिनिर्वाण हुआ. बुद्ध पूर्णिमा पर भगवान बुद्ध को मानने वाले उनके उपदेश सुनते है और उनके बताए मार्ग पर चलने का प्रण लेते हैं. लोगों को सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं.

कब और कैसे मनाया जाता है बुद्ध पूर्णिमा?

बुद्ध पूर्णिमा 2024 गुरुवार, 23 मई 2024 को मनाई जाएगी। इस दिन भगवान बुद्ध की 2586वीं जयंती है।

पवित्र नदी में स्नान, भगवान सत्यनारायण की पूजा और रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देना इस दिन का विशेष विधान है।

बुद्ध पूर्णिमा का महत्व

  • ज्ञान प्राप्ति: वैशाख पूर्णिमा के दिन ही बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।
  • महापरिनिर्वाण: वैशाख पूर्णिमा के दिन ही कुशीनगर में भगवान बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
  • प्रेरणा का स्रोत: बुद्ध पूर्णिमा हमें सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है।

बुद्ध पूर्णिमा पर क्या करें?

  • दान: शास्त्रों के अनुसार बुद्ध पूर्णिमा के दिन जल से भरा कलश और पकवान दान करने से गौ दान के समान पुण्य प्राप्त होता है।
  • पूजा: घर में सत्यनारायण कथा करें और रात्रि काल में मां लक्ष्मी को कमल का फूल अर्पित करें।
  • ज्ञान प्राप्ति का प्रयास: भगवान बुद्ध के उपदेशों का अध्ययन करें और उनके बताए मार्ग पर चलने का प्रयास करें।

गौतम बुद्ध: जीवन और शिक्षा

गौतम बुद्ध का जन्म सिद्धार्थ गौतम के नाम से हुआ था। वे एक महान आध्यात्मिक गुरु थे जिनकी शिक्षाओं से बौद्ध धर्म की स्थापना हुई।

बौद्ध धर्म की नींव चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग पर आधारित है।

बुद्ध की शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि पहले थीं।

बुद्ध पूर्णिमा हमें सत्य, अहिंसा, करुणा और प्रेम के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है।

आइए, हम इस पावन अवसर पर भगवान बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा ग्रहण करें और उनके बताए मार्ग पर चलने का प्रयास करें।

मोहिनी एकादशी 2024- Mohini Ekadashi

मोहिनी एकादशी 2024: तिथि, महत्व, पूजा विधि और व्रत कथा

पंचांग के अनुसार, मोहिनी एकादशी तिथि की शुरुआत 18 मई को सुबह 11 बजकर 22 मिनट पर होगी और इसका समापन 19 मई को दोपहर 1 बजकर 50 मिनट पर होगा. ऐसे में मोहिनी एकादशी का व्रत 19 मई 2024 को रखा जाएगा

मोहिनी एकादशी का महत्व:

विष्णु पुराण समेत अन्य धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि भगवान विष्णु की सबसे प्रिय तिथि एकादशी होती है। इस दिन भगवान विष्णु को फलाहार व्रत रख कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है। वैसे तो भगवान विष्णु को जगत का पालनहार कहा जाता है। उनके निमित्त इस दिन व्रत रख कर पुण्य कमाया जा सकता है।

मोहिनी अवतार की कथा:

मोहिनी एकादशी की कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है। समुद्र मंथन के दौरान अमृत निकालने के लिए देवताओं और असुरों ने सहयोग किया था। हालांकि, समुद्र मंथन से अमृत निकलने के बाद देवताओं और असुरों के बीच अमृत को लेकर विवाद हो गया। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण किया और मोहिनी रूप में उन्होंने देवताओं को अमृत पिला दिया। इसी घटना के उपलक्ष्य में मोहिनी एकादशी का व्रत रखा जाता है।

मोक्ष की प्राप्ति: मोहिनी एकादशी का व्रत रखने और भगवान विष्णु की पूजा करने से मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।

पापों से मुक्ति: ऐसा माना जाता है कि मोहिनी एकादशी का व्रत रखने से व्यक्ति को अपने पिछले जन्मों के पापों से मुक्ति मिलती है।

मनोकामना पूर्ति: इस व्रत को करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और जातक की मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

मोहिनी एकादशी की पूजा विधि:

प्रातः स्नान और वस्त्र: प्रातः जल्दी उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र पहनें।

पूजा स्थान: पूजा स्थान की साफ-सफाई करें और चौकी पर गंगाजल छिड़कें।

विष्णु जी की प्रतिमा स्थापना: भगवान विष्णु की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें।

आसन और संकल्प: आसन पर बैठ जाएं और मोहिनी एकादशी का व्रत रखने का संकल्प लें।

षोडशोपचार पूजन: भगवान विष्णु का षोडशोपचार पूजन करें। इसमें उन्हें स्नान कराना, वस्त्र और आभूषण अर्पित करना, तिलक लगाना, चंदन लगाना, पुष्प अर्पित करना, धूप जलाना, दीप प्रज्वलित करना, भोग लगाना, ध्रुव पद का स्मरण करना, हवन करना, पूजा की आरती करना और भगवान विष्णु की प्रार्थना करना शामिल है।

व्रत कथा: मोहिनी एकादशी की व्रत कथा का श्रवण करें।

दान: ब्राह्मणों को दान दें और गरीबों की मदद करें।

पारण: अगले दिन द्वादशी तिथि पर पारण करें। पारण करने से पहले भगवान विष्णु की पूजा करें और फिर अन्न ग्रहण करें।

उपवास के नियम:

इस दिन साबूदाना की खीर, फल और सत्तू का सेवन किया जा सकता है।

लहसुन, प्याज और तामसिक भोजन का सेवन न करें।

पूरे दिन व्रत रखने में असमर्थ हैं तो शाम को फलाहार कर सकते हैं।

मोहिनी एकादशी का निष्कर्ष:

मोहिनी एकादशी का व्रत भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने और मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला माना जाता है। इस दिन व्रत रखने और भगवान विष्णु की पूजा करने से व्यक्ति को सुख, शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है।

सीता नवमी 2024

सीता नवमी 2024: तिथि, महत्व, पूजा विधि और व्रत कथा

सीता नवमी, जिसे सीता जयंती के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण त्योहार है जो भगवान राम की पत्नी, देवी सीता के जन्मदिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस वर्ष, सीता नवमी 16 मई 2024 को मंगलवार के दिन मनाई जाएगी।

सीता नवमी का महत्व:

आदर्श पत्नी और पतिव्रता का प्रतीक: सीता माता को आदर्श पत्नी और समर्पित पतिव्रता के रूप में जाना जाता है। उनके जीवन से हमें भक्ति, पतिव्रता धर्म, संतोष, धैर्य और कठिन परिस्थितियों में दृढ़ता का पाठ मिलता है।

त्याग और संबल की भावना: सीता माता ने अपने जीवन में अनेक त्याग किए और हर परिस्थिति में अपने पति राम का साथ दिया। वे त्याग और संबल की भावना की प्रतीक हैं।

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व: सीता नवमी का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी है। इस दिन लोग सीता माता की पूजा-अर्चना करते हैं, व्रत रखते हैं और दान-पुण्य करते हैं।

सीता नवमी क्यों मनाई जाती है:

भगवान श्री रामचंद्र की पत्नी और मां लक्ष्मी का स्वरूप मां सीता के जन्मोत्सव पर सीता नवमी मनाई जाती है। वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को सीता नवमी मनाई जाती है। इस वर्ष 16 मई 2024 को यह शुभ दिन आ रहा है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है।   

सीता नवमी की व्रत कथा:

सीता नवमी के व्रत से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार, एक बार सीता माता को वनवास के दौरान रावण ने अपहरण कर लिया था। भगवान राम ने रावण से युद्ध कर सीता माता को मुक्त कराया। सीता माता के वनवास से वापस लौटने के बाद, उनके पतिव्रता धर्म की परीक्षा लेने के लिए भगवान राम ने उनसे अग्नि परीक्षा देने को कहा। सीता माता ने अग्नि में प्रवेश किया और अग्नि परीक्षा में सफल रहीं। इसी घटना के उपलक्ष्य में सीता नवमी का व्रत मनाया जाता है।

सीता नवमी की पूजा विधि:

प्रातः स्नान और वस्त्र: प्रातः स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनें।

पूजा स्थान: पूजा स्थान को स्वच्छ और शुद्ध करें।

देवी-देवताओं की स्थापना: एक चौकी पर गंगाजल छिड़ककर भगवान गणेश, भगवान राम, सीता माता और हनुमान जी की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें।

दीप प्रज्ज्वलन: दीप प्रज्ज्वलित करें और धूप-बत्ती लगाएं।

पुष्प और फल: देवी-देवताओं को पुष्प, फल और पंचामृत अर्पित करें।

मंत्र जाप: “ॐ जय श्री सीतायै नमः” या “श्री राम जय जय राम, जय जय हनुमान, सीता राम चंद्र की जय” मंत्र का जाप करें।

आरती: सीता माता की आरती गाएं।

व्रत कथा: सीता नवमी की व्रत कथा का श्रवण करें।

भोजन: दही-बड़े, साबूदाना की खिचड़ी, फल आदि का भोजन ग्रहण करें।

दान: दान-पुण्य करें।

सीता नवमी का महत्व:

सीता नवमी का महत्व केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक भी है। सीता माता स्त्रीत्व और पतिव्रता धर्म का प्रतीक हैं। इस दिन महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र और सुख-शांति के लिए व्रत रखती हैं।

गंगा सप्तमी

गंगा सप्तमी: 14 मई को मनाया जाएगा मोक्षदायिनी गंगा का पावन पर्व

गंगा सप्तमी वैदिक पंचांग के अनुसार, इस साल 14 मई, दिन मंगलवार को 02 बजकर 50 मिनट एएम पर वैशाख शुक्ल सप्तमी तिथि लग रही है। जो 15 मई, दिन बुधवार को सुबह 04 बजकर 19 मिनट एएम तक रहेगी। उदयातिथि के अनुसार, गंगा सप्तमी का पावन पर्व 14 मई, मंगलवार को मनाया जाएगा।

गंगा सप्तमी का महत्व:

  • इस दिन गंगा में स्नान करने का विशेष महत्व होता है।
  • लोग दूर-दूर से इन दिन पावन गंगा के स्नान करने के लिए आते हैं और डुबकी लगाकर अपने पापों से मुक्ति के लिए गंगा मां से प्रार्थना करते हैं।
  • इस दिन गंगा स्नान करने से मंगल दोष (Mangal Dosh) से मुक्ति मिलती है।
  • मान्यताओं के अनुसार, गंगा सप्तमी के अवसर पर मां गंगा में डुबकी लगाने से मनुष्य के सभी पाप धुल जाते हैं तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
  • इस दिन मां गंगा के मंत्रों का जाप करने से जीवन में शुभता आती है।

गंगा सप्तमी कब है:

  • गंगा सप्तमी पर्व 14 मई को मनाया जाएगा और इस दिन मध्याह्न मुहूर्त सुबह 10 बजकर 56 मिनट से लेकर 01 बजकर 39 मिनट तक रहेगा।

गंगा सप्तमी पूजन विधि:

  • गंगा जयंती के शुभ दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर गंगा स्नान करना चाहिए।
  • यदि संभव न हो तो घर में ही स्नान वाले पानी में थोड़ा सा गंगाजल डालकर नहा लें।
  • इसके बाद मां गंगा की मूर्ति या फिर नदी में फूल, सिंदूर, अक्षत, गुलाल,लाल फूल, लाल चंदन अर्पित करके मां गंगा की विधि-विधान से पूजा करें।
  • मां गंगा को भोग में गुड़ या फिर कोई सफेद मिठाई अर्पित करें।
  • फिर आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए गंगा आरती करें।
  • अंत में धूप-दीप जलाकर श्री गंगा सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करें और साथ ही गंगा मंत्र- ॐ नमो भगवति हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय पावय स्वाहा का जाप करें।

गंगा सप्तमी पर शिव पूजा:

  • गंगा सप्तमी पर शाम को चांदी या स्टील के लोटे में गंगा जल भरें।
  • इसमें बेलपत्र डाल कर घर से शिव मंदिर जाएं।
  • शिवलिंग पर जल डालकर बेलपत्र अर्पित करें।
  • मन ही मन आर्थिक संकट दूर होने की प्रार्थना करें।

गंगा सप्तमी की कथा:

  • पौराणिक कथा के अनुसार भागीरथ एक प्रतापी राजा थे। उन्होंने अपने पूर्वजों को जीवन-मरण के दोष से मुक्त करने के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने की ठानी। उन्होंने कठोर तपस्या आरंभ की।
  • गंगा उनकी तपस्या से प्रसन्न हुईं तथा स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के लिए तैयार हो गईं।
  • यह भी कहा जाता है कि गंगा का जन्म ब्रह्मा के कमंडल से हुआ था। मतलब यह कि गंगा नामक एक नदी का जन्म।
  • एक अन्य कथा के अनुसार ब्रह्माजी ने विष्णुजी के चरणों को आदर सहित धोया और उस जल को अपने कमंडल में एकत्र कर लिया

गंगा सप्तमी कथा (Ganga Katha)

कहते हैं कि गंगा देवी के पिता का नाम हिमालय है जो पार्वती के पिता भी हैं। जैसे राजा दक्ष की पुत्री माता सती ने हिमालय के यहां पार्वती के नाम से जन्म लिया था उसी तरह माता गंगा ने अपने दूसरे जन्म में ऋषि जह्नु के यहां जन्म लिया था।

यह भी कहा जाता है कि गंगा का जन्म ब्रह्मा के कमंडल से हुआ था। मतलब यह कि गंगा नामक एक नदी का जन्म। एक अन्य कथा के अनुसार ब्रह्माजी ने विष्णुजी के चरणों को आदर सहित धोया और उस जल को अपने कमंडल में एकत्र कर लिया। भगवान विष्णु के अंगूठे से गंगा प्रकट हुई अतः उसे विष्णुपदी कहां जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार गंगा पर्वतों के राजा हिमवान और उनकी पत्नी मीना की पुत्री हैं, इस प्रकार वे देवी पार्वती की बहन भी हैं। कुछ जगहों पर उन्हें ब्रह्मा के कुल का बताया गया है।

पौराणिक कथा के अनुसार भागीरथ एक प्रतापी राजा थे। उन्होंने अपने पूर्वजों को जीवन-मरण के दोष से मुक्त करने के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने की ठानी। उन्होंने कठोर तपस्या आरंभ की। गंगा उनकी तपस्या से प्रसन्न हुईं तथा स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के लिए तैयार हो गईं। पर उन्होंने भागीरथ से कहा कि यदि वे सीधे स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरेंगीं तो पृथ्वी उनका वेग सहन नहीं कर पाएगी और रसातल में चली जाएगी।

यह सुनकर भागीरथ सोच में पड़ गए। गंगा को यह अभिमान था कि कोई उसका वेग सहन नहीं कर सकता। तब उन्होंने भगवान भोलेनाथ की उपासना शुरू कर दी। संसार के दुखों को हरने वाले भगवान शिव प्रसन्न हुए और भागीरथ से वर मांगने को कहा। भागीरथ ने अपना सब मनोरथ उनसे कह दिया।

गंगा जैसे ही स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने लगीं गंगा का गर्व दूर करने के लिए शिव ने उन्हें जटाओं में कैद कर लिया। वह छटपटाने लगी और शिव से माफी मांगी। तब शिव ने उसे जटा से एक छोटे से पोखर में छोड़ दिया, जहां से गंगा सात धाराओं में प्रवाहित हुईं। इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगा का वरण करके भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं देती, मुक्ति भी देती है।

एक अन्य कथा के अनुसार : पूर्व जन्म में राजा प्रतीप महाभिष थे। ब्रह्माजी की सेवा में वे उपस्थित थे। उस वक्त गंगा भी वहां पर उपस्थित थी। राजा महाभिष गंगा पर मोहित होकर उसे एकटक देखने लगे। गंगा भी उन पर मोहित होकर उन्हें देखने लगी। ब्रह्मा ने यह सब देख लिया और तब उन्हें मनुष्य योनि में दु:ख झेलने का श्राप दे दिया। राजा महाभिष ने कुरु राजा प्रतीप के रूप में जन्म लिए और उससे पहले गंगा ने ऋषि जह्नु की पुत्री के रूप में।

एक दिन पुत्र की कामना से महाराजा प्रतीप गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके तप, रूप और सौन्दर्य पर मोहित होकर गंगा उनकी दाहिनी जंघा पर आकर बैठ गईं और कहने लगीं, ‘राजन! मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं। मैं जह्नु ऋषि की पुत्री गंगा हूं।’ इस पर राजा प्रतीप ने कहा, ‘गंगे! तुम मेरी दाहिनी जंघा पर बैठी हो, जबकि पत्नी को तो वामांगी होना चाहिए, दाहिनी जंघा तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार कर सकता हूं।’ यह सुनकर गंगा वहां से चली गईं।’

जब महाराज प्रतीप को पुत्र की प्राप्ति हुई तो उन्होंने उसका नाम शांतनु रखा और इसी शांतनु से गंगा का विवाह हुआ। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले जिसमें से 7 को गंगा नदी में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाया।

गंगा सप्तमी के मंत्र-Ganga Saptami  Mantra

1. गंगागंगेति योब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।

मच्यते सर्व पापेभ्यो विष्णुलोकं सगच्छति। तीर्थराजाय नम:

2. गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।

नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु।।

3. गांगं वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतम्।

त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु माम्।।

4. ॐ नमो गंगायै विश्वरुपिणी नारायणी नमो नम:।।

5. ‘ॐ नमो भगवति हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहा’।

गंगा सप्तमी पूजन विधि (Ganga Saptami 2023 Pujan Vidhi)

गंगा जयंती के शुभ दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर गंगा स्नान करना चाहिए. यदि संभव न हो तो घर में तो घर में ही स्नान वाले पानी में थोड़ा सा गंगाजल डालकर नहा लें. इसके बाद मां गंगा की मूर्ति या फिर नदी में फूल, सिंदूर, अक्षत, गुलाल,लाल फूल, लाल चंदन अर्पित करके मां गंगा की विधि-विधान से पूजा करें. मां गंगा को भोग में गुड़ या फिर कोई सफेद मिठाई अर्पित करें. फिर आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए गंगा आरती करें. अंत में धूप-दीप जलाकर श्री गंगा सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करें और साथ ही गंगा मंत्र- ॐ नमो भगवति हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय पावय स्वाहा का जाप करें|

गंगा सप्तमी पर शिव पूजा 

गंगा सप्तमी पर शाम को चांदी या स्टील के लोटे में गंगा जल भरें. इसमें बेलपत्र डाल कर घर से शिव मंदिर जाएं. शिवलिंग पर जल डालकर घर से शिव मंदिर जाएं. शिवलिंग पर जल डालकर बेलपत्र अर्पित करें. मन ही मन आर्थिक संकट दूर होने की प्रार्थना करें|

अक्षय तृतीया 2024

अक्षय तृतीया- Akshay Tritiya

अक्षय तृतीया (आखातीज) को अनंत-अक्षय-अक्षुण्ण फलदायक कहा जाता है। जो कभी क्षय नहीं होती उसे अक्षय कहते हैं। कहते हैं कि इस दिन जिनका परिणय-संस्कार होता है उनका सौभाग्य अखंड रहता है। इस दिन महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए भी विशेष अनुष्ठान होता है जिससे अक्षय पुण्य मिलता है।

अक्षय तृतीया का महत्व– Significance of Akshay Tritya

अक्षय तृतीया (आखातीज) को अनंत-अक्षय-अक्षुण्ण फलदायक कहा जाता है। जो कभी क्षय नहीं होती उसे अक्षय कहते हैं। कहते हैं कि इस दिन जिनका परिणय-संस्कार होता है उनका सौभाग्य अखंड रहता है। इस दिन महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए भी विशेष अनुष्ठान होता है जिससे अक्षय पुण्य मिलता है।

जिसका कभी नाश नहीं होता है या जो स्थाई है, वही अक्षय कहलाता है। स्थाई वही रह सकता है, जो सर्वदा सत्य है। सत्य केवल परमपिता परमेश्वर ही हैं जो अक्षय, अखंड व सर्वव्यापक है। अक्षय तृतीया की तिथि ईश्वरीय तिथि है।

अक्षय तृतीया का दिन परशुरामजी का जन्मदिवस होने के कारण परशुराम तिथि भी कहलाती है। परशुराम जी की गिनती चिरंजीवी महात्माओं में की जाती है। इसलिए इस तिथि को चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं।

अक्षय तृतीया का मुहूर्त कब से कब तक है?

इस बार अक्षय तृतीया 10 मई को मनाई जाएगी. वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि आरंभ 10 मई 2024 को सुबह 4 बजकर 17 मिनट से लेकर अगले दिन यानि 11 मई 2024 को सुबह 2 बजकर 50 मिनट तक रहेगा. वहीं अक्षय तृतीया की पूजा के लिए शुभ मुहूर्त 10 मई को सुबह 5 बजकर 33 मिनट से लेकर दोपहर 12 बजकर 18 मिनट तक रहेगा.

अक्षय तृतीया के दिन क्या खरीदना चाहिए?

अक्षय तृतीया के दिन जौं या पीली सरसों खरीदना बहुत शुभ माना जाता है। इस शुभ दिन पर जौं या पीली सरसों खरीदना सोना चांदी खरीदने के बराबर माना जाता है।

क्या अक्षय तृतीया 2024 शादी के लिए अच्छा है?

विवाह के लिए अक्षय तृतीया 2024: अक्षय तृतीया का दिन अत्यंत शुभ माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन दर्शन के लिए किसी भी शुभ या मांगलिक कार्य की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन इस साल यह दिन भी मांगलिक कार्य के लिए शुभ नहीं है।

अक्षय तृतीया पर किस देवता की पूजा करनी चाहिए?

अक्षय तृतीया को देश के कुछ राज्यों और क्षेत्रों में अबूझ मुहूर्त और आखा तीज के नाम से भी जाना जाता है। अक्षय तृतीया को भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा करके मनाया जाता है। अक्षय तृतीया पर सोना खरीदना भी शुभ माना जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इससे परिवार में सुख, शांति और धन आता है।

अक्षय तृतीया पर किस भगवान का विवाह हुआ था?

इस दिन, ऐसा कहा जाता है कि कुबेर (धन के देवता और सभी देवताओं के कोषाध्यक्ष) ने देवी लक्ष्मी की पूजा की, जिसने बदले में उन्हें शाश्वत धन और समृद्धि दी। इस प्रकार, विवाह करने से समृद्धि सुनिश्चित होती है। इस दिन, देवी मधुरा ने भगवान सुंदरेसा (भगवान शिव के अवतार) से विवाह किया था।

अक्षय तृतीया को किसका जन्म हुआ था?

अक्षय तृतीया के दिन ही वेदव्यास और भगवान गणेश ने महाभारत ग्रंथ लिखने की शुरुआत की थी और आदि शंकराचार्य ने कनकधारा स्रोत की रचना की थी. अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का जन्म हुआ था साथ ही इसी दिन कुबेर को खजाना भी मिला था. अक्षय तृतीया के दिन ही महाभारत का युद्ध भी समाप्त हुआ था.

अक्षय तृतीया के पीछे की कहानी क्या है?

अक्षय तृतीया के दिन भगवान परशुराम ने महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका देवी के घर जन्म लिया था(अक्षय तृतीया पर सोना खरीदने और विवाह करने का महत्व) और भगवान परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है। इसलिए अक्षय तृतीया के दिन भगवान विष्णु की पूजा अर्चना की जाती है।

अक्षय तृतीया का अर्थ क्या होता है?

अक्षय तृतीया का मतलब है ऐसी तिथि जिसका कभी भी क्षय नहीं होता या जो कभी खत्म नहीं होती. आज के दिन सोना खरीदना बहुत शुभ माना जाता है लेकिन सोने की खरीदारी के अलावा भी ऐसी कई चीजें होती हैं जिसे आज के दिन घर लाने से शुभ फल मिलता है.

अक्षय तृतीया पर क्या करें क्या करें?

अक्षय तृतीया के दिन सोना खरीदना शुभ माना जाता है, लेकिन इस दिन भूलकर भी प्लास्टिक, एल्युमिनियम या स्टील के बर्तन और सामान न खरीदें। ऐसा करने पर राहु का प्रभाव हावी हो जाता है और घर में दरिद्रता आ सकती है। अक्षय तृतीया के दिन पूजा स्थान, तिजोरी या धन स्थान को भूलकर भी गंदा न रहने दें।

 वैशाख अमावस्या 2024

 वैशाख अमावस्या 2024

हिंदू पंचांग के अनुसार, इस साल वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि 07 मई, 2024 दिन मंगलवार को सुबह 11 बजकर 40 पर शुरू होगी। वहीं, इसका समापन अगले दिन 08 मई बुधवार सुबह 08 बजकर 51 मिनट पर होगा। उदयातिथि को देखते हुए वैशाख अमावस्या 8 मई बुधवार को होगी और दर्श अमावस्या 7 मई को है।

वैशाख अमावस्या:

वैशाख अमावस्या के दिन 3 शुभ योगों का निर्माण हो रहा है, जिसके कारण यह पर्व और भी विशेष होने वाला है| वैशाख अमावस्या के अवसर पर स्नान और दान करने का बड़ा महत्व है. उस दिन अपने पूर्वजों को स्मरण करते हैं और पितरों की पूजा भी की जाती है, ताकि वे खुश होकर आशीर्वाद दें.

वैशाख अमावस्या कब है:

उदयातिथि को देखते हुए वैशाख अमावस्या 8 मई बुधवार को होगी और दर्श अमावस्या 7 मई को है।

वैशाख अमावस्या के टोटके:

धन संबंधी समस्या दूर करने के लिएः यदि आप आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, तो वैशाख अमावस्या के दिन गंगाजल से स्नान के बाद तुलसी की 108 बार परिक्रमा करें इससे धन संबंधी समस्या दूर होगी। इसी के साथ इस दिन शिवलिंग पर कच्चा दूध और दही चढ़ाएं, इससे विशेष लाभ होता है।

वैशाख अमावस्या कब है 2024:

उदयातिथि को देखते हुए वैशाख अमावस्या 8 मई बुधवार को होगी और दर्श अमावस्या 7 मई को है।

वैशाख अमावस्या 2024:

वैशाख अमावस्या का दिन पितरों की पूजा करने के लिए शुभ माना जाता है। इस बार वैशाख माह की अमावस्या 08 मई को है। मान्यता है कि इस दिन पितरों का तर्पण करने से उनको बैकुंठ धाम में जगह प्राप्त होती है।

वैशाख माह की पौराणिक कथा :

बहुत समय पहले धर्मवर्ण नाम के एक विप्र थे। वह बहुत ही धार्मिक प्रवृति के थे। एक बार उन्होंने किसी महात्मा के मुख से सुना कि घोर कलियुग में भगवान विष्णु के नाम स्मरण से ज्यादा पुण्य किसी भी कार्य में नहीं है। जो पुण्य यज्ञ करने से प्राप्त होता था उससे कहीं अधिक पुण्य फल नाम सुमिरन करने से मिल जाता है। धर्मवर्ण ने इसे आत्मसात कर सन्यास लेकर भ्रमण करने निकल गए। एक दिन भ्रमण करते-करते वह पितृलोक जा पंहुचे।

 वहां धर्मवर्ण के पितर बहुत कष्ट में थे। पितरों ने उसे बताया कि उनकी ऐसी हालत धर्मवर्ण के सन्यास के कारण हुई है क्योंकि अब उनके लिए पिंडदान करने वाला कोई शेष नहीं है। यदि तुम वापस जाकर गृहस्थ जीवन की शुरुआत करो, संतान उत्पन्न करो तो हमें राहत मिल सकती है।

 साथ ही वैशाख अमावस्या के दिन विधि-विधान से पिंडदान करें। धर्मवर्ण ने उन्हें वचन दिया कि वह उनकी अपेक्षाओं को अवश्य पूर्ण करेगा। तत्पश्चात धर्मवर्ण अपने सांसारिक जीवन में वापस लौट आया और वैशाख अमावस्या पर विधि विधान से पिंडदान कर अपने पितरों को मुक्ति दिलाई।

वैशाख अमावस्या को क्या करें :

1. वैशाख अमावस्या पर पितरों की शांति, ग्रहदोष, कालसर्प दोष आदि से मुक्ति के लिए उपाय किए जाते हैं।

2. इस दिन हो सके तो उपवास रखना चाहिए।

3. इस दिन व्यक्ति में नकारात्मक सोच बढ़ जाती है। ऐसे में नकारात्मक शक्तियां उसे अपने प्रभाव में ले लेती है तो ऐसे में हनुमानजी का जप करते रहना चाहिए।

4. अमावस्या के दिन ऐसे लोगों पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है जो लोग अति भावुक होते हैं।

अत: ऐसे लोगों को अपने मन पर कंट्रोल रखना चाहिए और पूजा पाठ आदि करना चाहिए।

5.इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए।

इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं।

वैशाख अमावस्या का महत्व:

वैशाख अमावस्या के दिन को बहुत महत्वपूर्ण और शुभ दिन माना जाता है. मान्यता है कि इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने से पापों से मुक्ति मिल जाती है. कहा जाता है कि वैशाख अमावस्या का दिन बड़ा ही पवित्र माना जाता है और इस दिन शुद्ध आचरण करके स्नान करने से शीघ्र फल मिलता है.

वरुथिनी एकादशी 2024

वरुथिनी एकादशी 2024: कब है, महत्व, मुहूर्त और कथा

वरुथिनी एकादशी हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को मनाई जाती है। यह सौभाग्य, पापनाश और मोक्ष प्रदान करने वाली एकादशी है।

2024 में वरुथिनी एकादशी 3 मई को है।

इस ब्लॉग पोस्ट में हम वरुथिनी एकादशी के बारे में निम्नलिखित जानकारी देंगे:

कब है वरुथिनी एकादशी 2024?

वरुथिनी एकादशी का महत्व

वरुथिनी एकादशी का मुहूर्त

वरुथिनी एकादशी व्रत कथा

वरुथिनी एकादशी व्रत के नियम

वरुथिनी एकादशी व्रत का पारण

कब है वरुथिनी एकादशी 2024?

जैसा कि पहले बताया गया है, वरुथिनी एकादशी 2024 में 3 मई को है।

वरुथिनी एकादशी का महत्व

वरुथिनी एकादशी का व्रत अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस व्रत को करने से निम्नलिखित लाभ मिलते हैं:

दस सहस्र वर्ष तपस्या करने के बराबर फल

सौभाग्य की प्राप्ति

पापों का नाश

पितृ, देवता और मनुष्यों की तृप्ति

जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति

वरुथिनी एकादशी का मुहूर्त

एकादशी तिथि आरंभ: 3 मई 2024, रात 11 बजकर 24 मिनट

एकादशी तिथि समाप्त: 4 मई 2024, रात 8 बजकर 38 मिनट

पारण का समय: 5 मई 2024, सुबह 9 बजकर 30 मिनट तक

वरुथिनी एकादशी व्रत कथा

इस व्रत कथा के अनुसार, प्राचीन काल में राजा मान्धाता नामक एक राजा थे। एक दिन जंगल में तपस्या करते समय उन्हें एक भालू ने घसीटकर ले गया और उनका पैर चबा लिया। राजा ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की और वरुथिनी एकादशी का व्रत रखा। भगवान विष्णु की कृपा से राजा का पैर ठीक हो गया और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई।

वरुथिनी एकादशी व्रत के नियम

दसवीं तिथि (दशमी) के दिन सूर्यास्त से पहले भोजन कर लें।

एकादशी के दिन निर्जला व्रत रखें।

भोजन में नमक, अनाज, दाल और तिल का सेवन न करें।

भगवान विष्णु की पूजा करें और व्रत कथा पढ़ें।

दूसरे दिन (द्वादशी) सूर्योदय के बाद पारण करें।

वरुथिनी एकादशी व्रत का पारण

द्वादशी के दिन सूर्योदय के बाद ब्राह्मणों को भोजन खिलाकर दक्षिणा दें। इसके बाद स्वयं भोजन ग्रहण करें।

निष्कर्ष

वरुथिनी एकादशी एक पवित्र व्रत है जो सौभाग्य, पापनाश और मोक्ष प्रदान करता है। यदि आप अच्छे स्वास्थ्य, समृद्धि और सुखी जीवन चाहते हैं तो आपको इस व्रत को अवश्य रखना चाहिए।

वरुथिनी एकादशी 2024: पूछे जाने वाले सामान्य प्रश्न (FAQs)

आपने वरुथिनी एकादशी के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त कर ली है।  चलिए अब कुछ सामान्य प्रश्नों के उत्तर देते हैं जो लोगों के मन में आते हैं:

1. वरुथिनी एकादशी पर क्या खाना चाहिए?

एकादशी के दिन व्रत रखा जाता है, इसलिए अन्न, दाल, सब्जी आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। आप फलाहार कर सकते हैं जिसमें दूध, फल, और मेवे शामिल हैं।

2. वरुथिनी एकादशी पूजा विधि क्या है?

स्नान आदि करके शुद्ध हो जाएं।

एक चौकी पर गंगाजल छिड़ककर भगवान विष्णु की तस्वीर या मूर्ति स्थापित करें।

भगवान विष्णु को तुलसी दाल, फल और मिठाई का भोग लगाएं।

धूप, दीप जलाएं और भगवान विष्णु का ध्यान करें।

वरुथिनी एकादशी की कथा पढ़ें और आरती करें।

3. वरुथिनी एकादशी का दान क्या करें?

वरुथिनी एकादशी पर अन्न दान का विशेष महत्व है। आप गरीबों को भोजन करा सकते हैं या किसी मंदिर में अन्न दान कर सकते हैं.

4. वरुथिनी एकादशी किसे रखना चाहिए?

कोई भी व्यक्ति जो अच्छे स्वास्थ्य, सौभाग्य और मोक्ष की प्राप्ति चाहता है, वह वरुथिनी एकादशी का व्रत रख सकता है।

5. गर्भवती महिलाएं वरुथिनी एकादशी का व्रत रख सकती हैं?

गर्भवती महिलाओं और बीमार लोगों को कठोर व्रत रखने की सलाह नहीं दी जाती है। आप व्रत को आसान बना सकते हैं या किसी ब्राह्मण या गुरु से सलाह ले सकते हैं।

6. क्या वरुथिनी एकादशी के दिन बाल कटवाना चाहिए?

एकादशी के दिन बाल कटवाना और नाखून काटना वर्जित माना जाता है।

7. क्या मासिक धर्म के दौरान वरुथिनी एकादशी का व्रत रखा जा सकता है?

मासिक धर्म के दौरान व्रत रखने की सलाह नहीं दी जाती है। आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें।

वरुथिनी एकादशी का मुहूर्त

एकादशी तिथि आरंभ 15 अप्रैल शाम 8 बजकर 46 मिनट

एकादशी तिथि समाप्त 16 अप्रैल शाम 6 बजकर 15 मिनट

पारण का समय 17 अप्रैल सुबह 9 बजकर 30 मिनट तक

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे राजेश्वर! वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को वरुथिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। यह सौभाग्य देने वाली, सब पापों को नष्ट करने वाली तथा अंत में मोक्ष देने वाली है। इसकी महात्म्य कथा आपसे कहता हूँ..

वरुथिनी एकादशी व्रत कथा!

प्राचीन काल में नर्मदा नदी के तट पर मान्धाता नामक राजा राज्य करते थे। वह अत्यंत दानशील तथा तपस्वी थे। एक दिन जब वह जंगल में तपस्या कर रहे थे, तभी न जाने कहाँ से एक जंगली भालू आया और राजा का पैर चबाने लगा। राजा पूर्ववत अपनी तपस्या में लीन रहे। कुछ देर बाद पैर चबाते-चबाते भालू राजा को घसीटकर पास के जंगल में ले गया।

राजा बहुत घबराया, मगर तापस धर्म अनुकूल उसने क्रोध और हिंसा न करके भगवान विष्णु से प्रार्थना की, करुण भाव से भगवान विष्णु को पुकारा। उसकी पुकार सुनकर भगवान श्रीहरि विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने चक्र से भालू को मार डाला।

राजा का पैर भालू पहले ही खा चुका था। इससे राजा बहुत ही शोकाकुल हुए। उन्हें दुःखी देखकर भगवान विष्णु बोले: हे वत्स! शोक मत करो। तुम मथुरा जाओ और वरूथिनी एकादशी का व्रत रखकर मेरी वराह अवतार मूर्ति की पूजा करो। उसके प्रभाव से पुन: सुदृढ़ अंगों वाले हो जाओगे। इस भालू ने तुम्हें जो काटा है, यह तुम्हारे पूर्व जन्म का अपराध था।

भगवान की आज्ञा मानकर राजा मान्धाता ने मथुरा जाकर श्रद्धापूर्वक वरूथिनी एकादशी का व्रत किया। इसके प्रभाव से राजा शीघ्र ही पुन: सुंदर और संपूर्ण अंगों वाला हो गया। इसी एकादशी के प्रभाव से राजा मान्धाता स्वर्ग गये थे।

जो भी व्यक्ति भय से पीड़ित है उसे वरूथिनी एकादशी का व्रत रखकर भगवान विष्णु का स्मरण करना चाहिए। इस व्रत को करने से समस्त पापों का नाश होकर मोक्ष मिलता है।

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