हवन के नियम
अग्नि वास देखने की विधि
सबसे पहले गणना के लिए ध्यान रखना है कि रविवार को 1 तथा शनिवार को 7 संख्या मानकर वार गिने जायेंगे।
- शुक्लपक्ष प्रतिपदा तिथि को 1 तथा अमावस्या को 30 मानकर गणना होगी ।
- जिस दिन हवन करना हो उसी दिन की तिथि एवं वार की संख्या जोड़कर जो संख्या प्राप्त होगी उसमे 1(+) जोड़ें , तत्पश्चात 4 से भाग(divide) करें |
- यदि कुछ भी शेष न रहे अर्थात संख्या पूरी भाग हो जाये तो अग्नि का वास पृथ्वी पर जाने । यदि 3 शेष बचे तो भी अग्नि का वास पृथ्वी पर जाने । यदि 1 शेष बचे तो अग्नि का वास आकाश में जाने। यदि 2 शेष बचे तो अग्नि वास पाताल में जाने ।
- यदि अग्नि वास पृथ्वी पर है तो सुखकारक यदि आकाश में है तो प्राण हानिकारक यदि पाताल में है तो धनहानि कारक होता है।
वैसे तो प्रत्येक कार्य विधिपूर्वक करना उचित है, परन्तु यज्ञ जैसे महान धार्मिक कृत्य को और भी अधिक सावधानी, श्रद्धा और तत्परता से करना चाहिए। शास्त्रों में उल्लिखित विधि-विधानों और नियमों का पालन करना अनिवार्य है और इसमें लापरवाही नहीं करनी चाहिए। गीता में ऐसे अधूरे और लापरवाही से किए गए यज्ञ की निंदा की गई है और उसे तामसिक ठहराया गया है।
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्यहीनसदक्षिणम्।
श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
गीता 17।13
शास्त्र विधि से रहित, अन्न दान से वंचित, मंत्र और दक्षिणा के बिना तथा बिना श्रद्धा के किए गए यज्ञ को ‘तामस यज्ञ’ कहते हैं।
महाभारत में कहा गया है:
सुशुद्धै यजमानस्थ ऋत्विग्भिश्च यथा विधि
शुद्ध द्रव्योपकरणैर्यष्टव्यमिति निश्चयः।
तथा कृतेषु यज्ञेषु देवानां तोषणं भवेत।
श्रेष्ठ स्याद्देव संद्येषु यज्वा यज्ञ फलं लभेत।
शुद्ध और सुयोग्य ऋत्विजों से, विधिपूर्वक शुद्ध सामग्री से यजमान को यज्ञ कराना चाहिए। विधिपूर्वक यज्ञ सम्पन्न होने से देवता संतुष्ट होते हैं, जिससे उचित सम्मान और यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
होम, देव-पूजन आदि क्रियाओं में, आचमन में, और वस्त्र धारण में नियमों का पालन करना चाहिए:
नेक वस्त्रः प्रवर्तेत द्विजवाचनिकेतथा।
वामेपृष्ठे तथा नाभौ कच्छत्रय मुद्राहृतम्।
त्रिभिः कच्छैः परिज्ञेयो विओ यः स शुचिर्भवेत्॥
यज्ञोपवीत को श्रौतिक और स्मार्तिक कर्मों में धारण करना चाहिए। यदि तीसरा वस्त्र न हो तो वह उत्तरीय के रूप में काम आता है। यदि कोई व्यक्ति गंजा हो, तो उसे ब्रह्मग्रन्थि युक्त कौशा धारण करनी चाहिए।
कुशा पाणि सदा तिष्ठैद्, ब्रह्मणो दम्भ वर्जितः।
वह नित्य पापों को नष्ट करता है, जैसे वायु तूल के ढेर को उड़ा देता है।
इस प्रकार यज्ञ को विधिपूर्वक, शुद्धता और श्रद्धा से करना चाहिए जिससे देवता प्रसन्न होकर यज्ञकर्ता को उचित फल प्रदान करें।
वैसे तो प्रत्येक कार्य विधिपूर्वक करना उचित है, परन्तु यज्ञ जैसे महान धार्मिक कृत्य को और भी अधिक सावधानी, श्रद्धा और तत्परता से करना चाहिए। शास्त्रों में उल्लिखित विधि-विधानों और नियमों का पालन करना अनिवार्य है और इसमें लापरवाही नहीं करनी चाहिए। गीता में ऐसे अधूरे और लापरवाही से किए गए यज्ञ की निंदा की गई है और उसे तामसिक ठहराया गया है:
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्यहीनसदक्षिणम्।
श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
– गीता 17.13
शास्त्र विधि से रहित, अन्न दान से वंचित, मंत्र और दक्षिणा के बिना तथा बिना श्रद्धा के किए गए यज्ञ को ‘तामस यज्ञ’ कहते हैं।
महाभारत में कहा गया है:
सुशुद्धै यजमानस्थ ऋत्विग्भिश्च यथा विधि
शुद्ध द्रव्योपकरणैर्यष्टव्यमिति निश्चयः।
तथा कृतेषु यज्ञेषु देवानां तोषणं भवेत।
श्रेष्ठ स्याद्देव संद्येषु यज्वा यज्ञ फलं लभेत।
शुद्ध और सुयोग्य ऋत्विजों से, विधिपूर्वक शुद्ध सामग्री से यजमान को यज्ञ कराना चाहिए। विधिपूर्वक यज्ञ सम्पन्न होने से देवता संतुष्ट होते हैं, जिससे उचित सम्मान और यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
होम, आचमन, संध्या, स्वस्तिवाचन और देव पूजन आदि क्रियाओं को एक वस्त्र से न करें। नाभि पर तथा नाभि से कमर भाग में और एक पृष्ठ भाग में इस प्रकार धोती की तीन काछें लगाने से ब्राह्मण कर्म के योग्य शुद्ध होता है:
होम देवार्चनाद्यास्तु क्रियास्वाचमने तथा।
नेक वस्त्रः प्रवर्तेत द्विजवाचनिकेतथा।
वामेपृष्ठे तथा नाभौ कच्छत्रय मुद्राहृतम्।
त्रिभिः कच्छैः परिज्ञेयो विओ यः स शुचिर्भवेत्॥
यज्ञोपवीते द्वेधार्ये श्रौते स्मार्ते च कर्मणि।
तृतौयमुत्तरीयार्थे वस्त्राभावेतदिष्यते।
खल्वाटत्वादि दोषेण विशिखश्चेन्नरोभवेत्।
कौशीं तदाधारयीत ब्राह्मग्रन्थि युताँशिखाम्।
श्रोत और स्मार्त कर्मों में दो यज्ञोपवीत धारण करने चाहिए। कंधे पर अंगोछा न हो तो तीसरा यज्ञोपवीत उसके स्थान में ग्रहण करें। यदि गंजेपन के कारण शिरस्थान पर बाल न हो तो ब्रह्मग्रन्थि लगाकर कौशा धारण करनी चाहिए।
कुश पाणि सदा तिष्ठैद्, ब्रह्मणो दम्भ वर्जितः।
वह नित्य पापों को नष्ट करता है, जैसे वायु तूल के ढेर को उड़ा देता है।
इस प्रकार यज्ञ को विधिपूर्वक, शुद्धता और श्रद्धा से करना चाहिए जिससे देवता प्रसन्न होकर यज्ञकर्ता को उचित फल प्रदान करें।
होम, आचमन, संध्या, स्वस्तिवाचन और देव पूजन आदि कर्मों को एक वस्त्र से न करें। नाभि पर तथा नाभि से कमर भाग में और एक पृष्ठ भाग में इस प्रकार धोती की तीन काछें लगाने से ब्राह्मण कर्म के योग्य शुद्ध होता है। श्रोत और स्मार्त कर्मों में दो यज्ञोपवीत धारण करने चाहिए। कंधे पर अंगोछा न हो तो तीसरा यज्ञोपवीत उसके स्थान में ग्रहण करें। यदि गंजेपन के कारण शिरस्थान पर बाल न हो तो ब्रह्मग्रन्थि लगाकर कुश की शिखा धारण करें। जो ब्राह्मण हाथ में कुश लेकर कार्य करता है वह पापों को नष्ट करता है।
संकल्पेन बिना कर्म यत्किंचित् कुरुते नरः।
फलं चाप्यल्पकं तस्य धर्मस्यार्द्धक्षयो भवेत्।
संकल्प के बिना जो कर्म किया जाता है उसका आधा फल नष्ट हो जाता है। इसलिए संकल्प पढ़कर हवन कृत्य करावें।
अव होमोपवासेषु धौतवस्त्र धरो भवेत्।
अलंकृतः शुचिमौनो श्रद्धावान विजितेन्द्रियः॥
जप, होम और उपवास में धुले हुए वस्त्र धारण करने चाहिए। स्वच्छ, मौन, श्रद्धावान और इन्द्रियों को जीतकर रहना चाहिए।
अधोवायु समुत्सर्गेप्रहासेऽनृत भाषणे।
मार्जार मूषिक स्पर्शे आक्रुष्टे क्रोध सम्भवे।
निमित्तेष्वेषु सर्वेषु कर्म कुर्वन्नयः स्पृशेत्।
होम, जप आदि करते हुए, अपान वायु निकल पड़ने, हंस पड़ने, मिथ्या भाषण करने, बिल्ली या मूषक आदि के छू जाने, गाली देने और क्रोध आ जाने पर हृदय तथा जल का स्पर्श करना ही प्रायश्चित है।
ग्रंथों में अनेक विधि-विधानों का अधिक खुलासा-वर्णन नहीं है। संक्षिप्त रूप से ही संकेत कर दिए गए हैं। ऐसे प्रसंगों पर कुछ का स्पष्टीकरण इस प्रकार है:
कर्त्रगानामनुक्तौतु दक्षिणाँगं भवेत्सदा।
यत्रदिं नियमोनास्ति जपादिषु कथंचन।
तिस्रस्तत्रदिशः प्रोक्ता ऐन्द्री सौम्याँऽपराजिता।
आसीनः प्रह्वऊर्ष्वोवा नियमोयत्रनेदृशः।
तदासीने न कर्त्तव्यं न प्रह्वेण न तिष्ठता।
इन निर्देशों का पालन करते हुए, यज्ञ और अन्य धार्मिक कर्मों को शुद्धता और श्रद्धा से सम्पन्न करना चाहिए, जिससे जहाँ कर्ता का हस्त आदि नहीं कहा गया हो कि अमुक अंग से यह करे, वहाँ सर्वत्र दाहिना हाथ जाना चाहिए। जप, होम आदि में जहाँ दिशा का नियम न लिखा हो, वहाँ सर्वत्र पूर्व, उत्तर और ईशान, इनमें से किसी दिशा में मुख करके कर्म करें। जहाँ यह नहीं कहा गया हो कि खड़ा होकर, बैठकर या झुककर कर्म करें, वहाँ सर्वत्र बैठकर करना चाहिए।
सदोपवीतिनाभाव्यं सदा बद्ध शिखेन च।
विशिखाव्युपवीतश्च यत्करोति न तत्कृतम्।
तिलकं कुँकुमे नैव सदा मंगल कर्मणि।
कारयित्वा सुमतिमान न श्वेत चन्दनं मृदा।
हवन आदि करते समय यज्ञोपवीत पहनें, शिखा में गाँठ लगाए रहें। खुली शिखा न रखें। सभी मांगलिक कार्यों में केसर मिश्रित तिलक लगावें। सफेद चन्दन या मिट्टी का तिलक न करें।
हविष्यान्नं तिला माषा नीवारा ब्रीहयो यवाः
इक्षवः शालयो मुद्गा पयोदधि घृतं मधु।
तिल, उड़द, तिन्नी, भदौह, धान, जौ, ईख, बासमती चावल, मूँग, दूध, दही, घी और शहद ये हविष्यान्न हैं। इनमें जौ मुख्य है उसके बाद धान। यदि धान न मिले तो दूध अथवा दही में काम चलावें। यदि कही हुई वस्तु न मिले तो उसके स्थान पर समान गुण वाली वस्तु ले लेनी चाहिए।
स्नास्यतो वरुणस्तेजो जुह्यतोऽग्नि श्रियं हरेत्।
भुञ्जानस्य यमस्त्वायुः तस्यान्न व्याहरेत् त्रिषु॥
स्नान करते समय बोलने वाले का तेज वरुण हरण कर लेता है। यज्ञ करते समय बोलने वाले की श्री अग्नि हरण करती है। भोजन करते समय बोलने वाले की आयु यम हरण कर लेते हैं।
क्षुतृट्क्रोध सामयुक्तो हीन मंत्रो जुहोति यः
अप्रवृद्धे सधूमे या सोऽन्धः स्यादन्य जन्मनि।
भूख, प्यास, क्रोध आदि से व्याकुल व्यक्ति, मंत्रहीन, अप्रज्ज्वलित अग्नि में हवन करता है तो वह अगले जन्म में अंधा होता है।
न युक्ता केशोजुहुयान्नानिपातित जानुकः
अनिपातितजानुस्तु राक्षसैह्रियते हविः।
खुले बाल रखकर एवं खुली जानु (घुटना) रखकर हवन न करें, क्योंकि ऐसा करने से राक्षस हवि का हरण कर लेते हैं।
तिलार्ध तण्डुला देयास्टण्डुलार्ध यवस्तिथा
यवार्ध शर्कराः प्रोक्ताः सवार्द्धच घृतं स्मृतम्।
–आनन्द रामायण
तिल से आधे चावल, चावल से आधे जौ, जौ से आधी शक्कर और आधा घी लेना चाहिए।
सर्व काम समृद्ध्यर्थं तिलाधिक्यं सदैव हि।
–त्रिकारिका
सभी कार्यों में सफलता के लिए तिल अधिक मात्रा में लेने चाहिए।
शमी (छोंकर) पलाश (ढाक) बट, प्लक्ष (पाकर) विकंकृत, पीपल, उदम्बर (गूलर) बेल, चन्दन, सरल, शाल, देवदारु और खैर ये याज्ञिक वृक्ष हैं, इनकी समिधा होम में लगावें।
पलाशाऽश्वत्थन्यग्रोध प्लक्षकवैकंकतोभद्वाः।
वैतसौदुम्वरो विल्वश्चन्दनः सरलस्तथा॥
शालश्च देवदारुश्च खदिरश्चेति याज्ञिकाः॥
हवन में प्रयोग के लिए इन वृक्षों की समिधा उत्तम मानी जाती है।सभी कर्म विधिपूर्वक और धर्मसंगत हों।
ब्राह्म पुराण
ढाक, पीपल, बरगद, वेंकट, बेंत, गूलर, बेल, चन्दन, साल, देवदारु, कत्था की लकड़ी याज्ञिक कही गई है।
वायु पुराण
कीड़े-मकोड़ों से भरे हुए, लताओं से लिपटे हुए, इमली, कटहल आदि वृक्ष यज्ञ के लिए उपयुक्त नहीं हैं। काँटेदार, दीमकों की बाम्बी वाले और जिनमें पक्षी रहते हों, ऐसे वृक्ष यज्ञ के लिए ग्राह्य होने पर भी काम में नहीं लेने चाहिए।
आहुति विधि
मंत्र से ऊंकार से शुद्ध करते हुए और अंत में स्वाहा लगाते हुए मंत्र देवता का ध्यान करते हुए आहुति दें।
यदालेलायते ह्यर्चिं समिद्धे हव्यवाहने।
तदाज्यभागावन्तेरेणाहुतीः प्रतिपादयेत्।
–मुण्डकोपनिषद्
जब अग्नि भली भांति जल चुकी हो और उसकी लपटें उठने लगें तब उसमें आहुतियाँ देनी चाहिए।
योऽनर्चिषि जुहोत्यग्नौ व्यंग्कारिणी च मानवः।
मन्दाग्नि रामयावी च दरिद्रश्चापि जायते।
तस्मात्समिद्धे होतव्यं नासभिद्धे कथञचन॥
–छांदोग्य परिशिष्ट
जो मनुष्य बिना प्रज्ज्वलित, बिना अंगार की अग्नि में आहुति देता है, वह मंदाग्नि आदि उदर रोगों का दुख पाता है। इसलिए प्रज्ज्वलित अग्नि में ही हवन करना चाहिए।
ऋत्वजा जुह्यता वह्नौ वहिः पतति यद्धविः।
स ज्ञेयो वारुणो भागः अक्षेप्या विमले जले।
–शौनक
अग्नि में हवन करते समय जो हवि बाहर गिर पड़े उसे वरुण का भाग मानकर पवित्र जलाशय में विसर्जित करना चाहिए।
हवन का सही तरीका
सीधे हाथ से एवं अंगूठे के अग्रभाग से दबाए हुए, परस्पर मिली हुई अंगुली युक्त हाथ से हवन करें।
पूजा की आवश्यक सामग्री
कुशेन रहिता पूजा विफला कृतिता मया।
उदकेन बिना पूजा बिना दर्भेण या क्रिया॥
जल और कुश के उपयोग के बिना पूजा सफल नहीं होती। कुश के स्थान पर दूर्वा का उपयोग मंगल कार्यों में किया जा सकता है।
हेमाद्रि
कुश के स्थान पर दूब का उपयोग कर लेने से मंगल की वृद्धि होती है।
हवन के समय वेद मंत्रों का सस्वर उच्चारण
हवन के समय वेद मंत्रों को सस्वर उच्चारण करने या छन्द, ऋषि, देवता आदि का विनियोग पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। यथा-
उपस्थाने जपे होमे दोहे च यज्ञ कर्मणि।
हस्त स्वरं कुर्वीत शेवस्तु स्वर संयुता।
–ओतोल्लास
आवश्यकता नहीं है। अन्य कर्मों में लगाव।
हस्त स्वर का प्रयोग
जप, होम, यज्ञ, श्राद्ध, अभिषेक, पितृकर्म, संध्या अथवा देव पूजन में हस्त स्वर का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
जपेहोमे मखे श्राद्धेऽभिषेके पितृकर्मणि।
हस्तस्वरं न कुर्वीत सन्ध्यादौ देव पूजने।
–स्मार्त प्रभुः
कण्ठ स्वर का प्रयोग
उपस्थान, जप, होम, मार्जन तथा यज्ञ में कण्ठ स्वर पर्याप्त है।
उपस्थाने जपे होमे मार्जने यज्ञ कर्मणि।
कण्ठ स्वरं प्रकुर्वीत…………..।
–स्मार्त प्रभुः
ऋषि, छन्द, एवं ओंकार का स्मरण
श्राद्ध, अग्निहोत्र, एवं ब्रह्म यज्ञ में ऋषि, छन्द, एवं ओंकार का स्मरण वर्जित है।
न च स्मरेत् ऋषि छन्दः श्राद्धे वैतानिकेमखे।
ब्रह्म यज्ञे च वै तद्धत्तथोंकार विवर्जयते।
हवन में उँगलियों का प्रयोग
हवन करते समय किन-किन उँगलियों का प्रयोग किया जाय इसके संबंध में भृंगी और हंसी मुद्रा को शुभ माना गया है। ‘मृगी’ मुद्रा वह है जिसमें अंगूठा, मध्यमा और अनामिका उँगलियों से सामग्री होमी जाती है। हंसी मुद्रा वह है जिसमें सबसे छोटी उँगली कनिष्ठिका का उपयोग न करके शेष तीन उँगलियों तथा अंगूठे की सहायता से आहुति छोड़ी जाती है।
होमे मुद्रा स्मृतास्तिस्रो मृगी हंसी च सूकरी।
मुद्राँ बिना कृतो होमः सर्वो भवति निष्फलः।
शान्तके तु मृगी ज्ञेया हंसी पौष्टिक कर्मणि।
सूकरी त्वभिचारे तु कार्ण तंत्र विदुत्तमेः।
–परशुराम कारिका
मुद्राओं का विवरण
कनिष्ठा और तर्जनी उँगलियाँ जिसमें प्रयुक्त न हों वह मृगी मुद्रा है। कनिष्ठा रहित हंसी मुद्रा होती है और हाथ को सिकोड़ने से सूकरी मुद्रा बन जाती है।
कनिष्ठा तर्जनी हीना मृगी मुद्रा निरुच्यते।
हंसी मुक्त कनिष्ठा स्यात् कर संकोच सूकरी।
–परशुराम कारिका
पद्य पुराण-भूमिखण्ड
ध्यान दें कि हवन विधि में सही मुद्रा और नियमों का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिससे हवन का सम्पूर्ण फल प्राप्त हो।
- जो होम जिस देवता के उद्देश्य से किया जावे, उसी के मंत्र से हवन होना चाहिए।
- देव यात्रा, विवाह, यज्ञ एवं उत्सवों में छूतछात का विचार नहीं किया जाता:
देययात्रा विवाहेषु यज्ञ प्रकरणोषु च।
उत्सवेषु च सर्वेषु स्पृष्टास्पृष्टं न विद्यते।
–अत्रि स्मृति 246
शुभ मुहूर्त देखकर उत्तम बेला में शुभ कर्म करना सदा ही उचित है, पर अनावश्यक रूप से अधिक लंबे समय तक मुहूर्त आदि की अड़चन के कारण उसे टालना ठीक नहीं। क्योंकि टालने से आज का उत्साह एवं सत्संकल्प ठण्डा पड़ सकता है या कोई अन्य विघ्न उसमें रोड़ा अटका सकता है। इसलिए शुभ कार्य को शीघ्र करना उचित है।
यदैव जायते वित्तं चित्तं श्रद्धा समन्वितम्।
तदैव पुण्यकालोऽयं यतोऽनियत् जीवितम्।
अतः सर्वेषु कालेषु रुद्रयज्ञः शुभप्रदः॥
–परशुरामः
जब पैसे की सुविधा हो, जब चित्त में श्रद्धा हो तभी पुण्य काल (शुभ मुहूर्त) है। क्योंकि इस नाशवान जीवन का कोई समय नहीं। रुद्र यज्ञ के लिए सभी समय शुभ है।
जन्म मरण आदि के कारण जो मृतक हो जाते हैं, उनमें शुभ कर्म निषिद्ध है। जब तक शुद्धि न हो जाए, तब तक यज्ञ, ब्रह्म भोजन आदि नहीं किये जाते। परन्तु यदि वह शुभ कार्य प्रारंभ हो जाए, तो फिर सूतक उपस्थिति होने पर उस कार्य का रोकना आवश्यक नहीं। ऐसे समयों पर शास्त्रकारों की आज्ञा है कि उस यज्ञादि कर्म को बीच में न रोककर उसे यथावत चालू रखा जाए। इस सम्बंध में कुछ शास्त्रीय अभिमत नीचे दिए जाते हैं:
यज्ञे प्रवर्तमाने तु जायेतार्थ म्रियेत वा।
पूर्व संकल्पिते कार्ये न दोष स्तत्र विद्यते।
यज्ञ काले विवाहे च देवयागे तथैव च।
हूय माने तथा चाग्नौ नाशौचं नापि सतकम्।
–दक्षस्मृति 6।19-20
यज्ञ हो रहा हो ऐसे समय यदि जन्म या मृत्यु का सूतक हो जाए तो इससे पूर्व संकल्पित यज्ञादि धर्म में कोई दोष नहीं होता। यज्ञ, विवाह, देवयोग आदि के अवसर पर जो सूतक होता है उसके कारण कार्य नहीं रुकता।
न देव प्रतिष्ठोर्त्सगविवाहेषु देशविभ्रमे।
नापद्यपि च कष्टायामा शौचम्॥
–विष्णु स्मृति
देव प्रतिष्ठा, उत्सर्ग, विवाह आदि में उपस्थित सूतक में बाधा नहीं।
विवाह दुर्ग यज्ञेषु यात्रायाँ तीर्थ कर्मणि।
न तत्र सूतकं तद्वत कर्म याज्ञादि कारयेत॥
–पैठानसि
विवाह, किला बनाना, यज्ञ, यात्रा, तीर्थ कर्म के समय यदि सूतक हो जाए, तो उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।
यज्ञ करने वाले यजमान पर ही नहीं यह बात ऋत्विज, ब्रह्मा, आचार्य आदि पर भी लागू होती है। उनके यहाँ कोई सूतक हो जाए, तो वह यज्ञ करने-कराने या उसमें भाग लेने के अनधिकारी नहीं होते तथा:
ऋत्विजाँ यजमानस्य तत्पत्न्या देशकस्य च।
कर्ममध्ये तु नाशौच मन्त एव तु तद्भवेत॥
ऋत्विजों को, यजमान को, यजमान की पत्नी को और आचार्य को जन्म या मरण का सूतक नहीं लगता। यज्ञ कर्म की पूर्ति हो जाने पर ही उन्हें सूतक लगता है।
ऋत्विजाँ दीक्षितानाँ च याज्ञिकं कर्म कुर्वताम्।
सत्रिव्रति ब्रह्मचरिदातृ ब्रह्म विदाँ तथा॥
दाने विवाहे यज्ञे च संग्रामे देश विप्लवे।
आपद्यपि हि कष्टायाँ सद्यः शौचं विधीयते॥
ऋत्विज, दीक्षित, याज्ञिक कर्म करने वाले, सत्रिव्रत, ब्रह्मचारी, दात्री, ब्रह्मविद्, दान, विवाह, यज्ञ, संग्राम, देश विप्लव एवं आपत्ति के समय, तथा कष्ट में भी सद्यः शौच विधेय है।
इस प्रकार, शास्त्रों के अनुसार, यज्ञ और अन्य धार्मिक कर्मों में सूतक की उपस्थिति से प्रभावित नहीं होना चाहिए, और यज्ञ को विधिपूर्वक पूर्ण करना चाहिए।
याज्ञवल्क्य:
ऋत्विज्, दीक्षित अन्नसत्रि, चान्द्रायण आदि व्रतों में तत्पर, ब्रह्मचारी, दानी, ब्रह्मज्ञानी और याज्ञिकों की दान में, विवाह में, यज्ञ में, संग्राम में, देश विप्लव में और आपत्ति में सद्यः (तुरन्त) शुद्धि हो जाती है। यज्ञ के मध्य सूतक हो जाने पर तात्कालिक स्नान कर लेने मात्र से उसकी शुद्धि हो जाती है। ऐसे अवसरों पर सूतक निवृत्ति के लम्बे समय तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती। यथा:
यज्ञे विवाह काले च सद्यः शौचं विधीयते।
विवाहोत्सव यज्ञेषु अन्तरामृत सूतके।
पूर्वसंकल्पितार्थास्य न दोषश्चात्रिरव्रवीत्॥
–अत्रि सं. 9 98
यज्ञ और विवाह में जन्म या मृत्यु का सूतक (अशौच) आ जाय तो उसको सद्यः शुद्धि हो जाती है। उस पूर्व संकल्पित कार्य या विवाहादि में कोई बाधा नहीं पड़ती।
सारांश में, धर्म शास्त्रों के अनुसार, यज्ञ और अन्य शुभ कार्यों में सूतक या अशौच के कारण कार्य रोकने की आवश्यकता नहीं होती। आवश्यक तात्कालिक उपाय जैसे स्नान आदि कर लेने से शुद्धि प्राप्त हो जाती है और कार्य सुचारू रूप से चलता रहता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि धार्मिक अनुष्ठान और शुभ कार्यों को सुगम बनाने के लिए शास्त्रों में पर्याप्त प्रावधान हैं, जिससे कि सामाजिक और धार्मिक जीवन में बाधा न आए।