Match Making Astrology

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Match Making Astrology & Rules-कुंडली मिलान ज्योतिष और नियम

“जानिए कुंडली मिलान के महत्व को और अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए कैसे करें।”

सुन्दर विचार, शिष्टाचारवाली स्त्री धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देनेवाली होती है। ऐसा आचरण जन्म लग्न, नक्षत्र, ग्रह के वश में होता है। इसलिए विवाह-समय में इसका विचार कर लेना आवश्यक है। क्योंकि पुत्र (सन्तान), स्वभाव, आचरण, धर्म ये गृहलक्ष्मी पर निर्भर करता है।

विवाह-योग का प्रश्न विचार -Consideration of Marriage Yoga:

स्वस्थ-चित्त बैठे ज्योतिषी की धनादि से पूजा करके प्रश्न करना चाहिए। प्रश्नकाल में यदि चन्द्रमा 10/11/3/7 या 5 वें स्थान में से किसी एक स्थान में हो और गुरु से देखा जाता हो अथवा प्रश्न- लग्न में वृष, तुला या कर्क लग्न हो और शुभ ग्रह से देखा जाता हो, तो शीघ्र विवाह का योग समझना चाहिए। प्रश्नकाल में चन्द्रमा और शुक्र यदि विषम राशि या विषम राशि के नवांश में बली होकर लग्न को देखता हो तो वर को स्त्री तथा कन्या को पति शीघ्र प्राप्त होगा शुक्र, चन्द्रमा यदि सम राशि नवांश में हो और बली होकर लग्न को देखता हो तो वर को शीघ्र स्त्री-लाभ कराता है।

विवाह भंग योग-Marriage Cancellation Yoga

कृष्ण पक्ष का चन्द्रमा यदि प्रश्न लग्न से समसंख्यक राशि में हो; पाप ग्रह से देखा जाता हो अथवा छठें या आठवें स्थान में हो तो विवाह पक्का नहीं होने देता।

बाल-विधवा योग परिहार-Remedies for Child Widowhood Yoga

जन्म-काल या प्रश्न-काल से विधवा-योग देखकर कन्या को सावित्री या पीपल व्रत कराकर, शुभ लग्न में विष्णु भगवान् की मूर्ति या पीपल वृक्ष, कदली या कुम्भ-विवाह कराकर किसी चिरंजीवि वर के साथ व्याह दें। इसमें पुनर्विवाह का दोष नहीं लगता है। यह धर्मशास्त्र का कथन है। कुम्भादि विवाह गुप्त करना चाहिए।

सन्तान भेद से जन्म-मासादि फल-The Effects of Child Discrimination on Birth Month and Other Factors

जन्म मास, जन्म नक्षत्र, जन्म तिथि में प्रथम सन्तान (पुत्र, अथवा कन्या) का विवाह शुभ नहीं होता है। द्वितीय गर्भ से उत्पन्न सन्तान का विवाह उक्त समय में सन्तति देने वाला होता है। ऐसा विद्वानों का विचार है।

विवाह में विशेष विचार-Special Considerations in Marriage

लड़के के विवाह के बाद छः महीने के भीतर लड़की का विवाह नहीं करना चाहिए। लड़की के विवाह के बाद छः महीने तक अपने कुल में किसी का मुण्डन नहीं कराना चाहिए। दो सहोदरों को, दो सहोदर कन्या नहीं व्याहनी चाहिए। छः माह के भीतर दो सहोदर या दो सहोदर कन्याओं का विवाह शास्त्र वर्जित है।

गणना क्यों देखी जाती है-Why is Astrological Compatibility Checked?

प्राचीन युग के लोग शास्त्र पर आँख मूँद कर विश्वास कर लेते थे। लेकिन आधुनिक युग में मेलापक विषय का वैज्ञानिक रहस्य बतलाना आवश्यक है। तभी इस पर संसार विश्वास कर सकता है। भारत आर्यों का निवास-स्थान और पुण्य-भूमि है। प्राचीनकाल में यहाँ का मानव-समाज ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास इन्हीं चार आश्रमों में विभक्त था। अन्य तीन आश्रम गृहस्थाश्रम पर ही निर्भर रहते थे। गृहस्थाश्रम का प्रथम सोपान विवाह ही है। यह विवाह मंगलदायक हो तो गृहस्थाश्रम सुखपूर्वक व्यतीत हो जाता है। दाम्पत्य-जीवन के सुखपूर्वक निर्वाह होने की जानकारी के लिए ही नक्षत्र और ग्रह मेलापक किया जाता है।

नवग्रह और दसवाँ ग्रह पृथ्वी एक-दूसरे क आकर्षण से शून्य में टिके हुए हैं। मनुष्य पृथ्वी पर है। अतः अन्य नवग्रहों के आकर्षण का प्रभाव मनुष्यों पर भिन्न-भिन्न रूप से पड़ता है। मनुष्य स्वयं कुछ भी नहीं करते हैं, वरन् यह ग्रहों के आकर्षण का प्रभाव ही उन्हें प्रभावित करता है और मनुष्य उसी के अनुसार कार्य भी करते हैं। मनुष्य का शरीर जिससे बना है उन तत्त्वों के साथ ग्रहों का सम्बन्ध है। अतः जो ग्रह बुरा प्रभाव वाला होता है तो मनुष्य भी बुरा काम कर बैठता है और उन तत्त्वों में बड़बड़ी हो जाती है। वर-वधू के नक्षत्र और ग्रहों में कैसा आकर्ष है तथा इसका प्रभाव क्या होता है, इसको जानने के लिए ही नक्षत्र और ग्रह मिलाये जाते हैं।

कुण्डली मिलाने की रीति-The Process of Horoscope Matching

स्त्री-नाशक या पति नाशक जो योग हैं, उन योगों के अनुसार पति के ग्रहों का प्रबल होना आवश्यक है। कुण्डली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश में पाप ग्रह का होना प्रायः पति- नाशक या पत्नी-नाशक है। इसमें पति को मंगला और स्त्री को मंगली कहते हैं।

इसके लिए पण्डितों का अनुभव है कि, सबसे अधिक दोषकारक मंगल, उससे कम बाकी पाप ग्रह होते हैं। इस योग को चन्द्रमा, शुक्र और सप्तमेश से भी देखना चाहिए। द्वितीय, सप्तम भावों में भी पाप योग होता है। स्त्री की कुण्डली में सप्तम, अष्टम स्थान में शुभ योग होना सौभायवर्द्धक है। सप्तमेश अष्टमेश का योग अथवा अष्टमेश का सप्तमेश में होना भी उसी प्रकार का योग होता है । सन्तान प्रतिबन्धक योग भी प्रायः वैधव्य- सूचक होते हैं। एकादश या पञ्चम में भी विशेष पाप योग वैधव्यसूचक होता है। इन योगों के विचार से यदि ग्रह प्रबल पड़े तो वह विवाह करना योग्य है। इसके बाद आयु, सन्तान और भाग्य योग को देखना युक्तिसंगत है।

प्रश्न- लग्न या जन्म लग्न से स्त्री की कुण्डली में छठें या आठवें चन्द्रमा हों, लग्न में चन्द्रमा और सातवें पाप ग्रह हों, लग्न में चन्द्रमा और सातवें मंगल हो तो भी वैधव्य कारक योग होता है। यदि कन्या का प्रबल वैधव्य योग हो तो अश्वत्थ विवाह, कुम्भ विवाह या विष्णु प्रतिमादि के साथ विवाह करके चिरंजीवि वर के साथ विवाह किया जाय तो पुनर्विवाह का दोष नहीं होता। परन्तु यह काम गुप्त करना चाहिए। सप्तमेश, षष्ठ, सप्तम, नवम, अष्टम, द्वादश में पापयुक्त हो तो भी सौभाग्य के लिए अनिष्टप्रद होता है। सप्तमेश का पञ्चम भाव में होना भी अच्छा नहीं होता। ज्योतिष-फलित शास्त्र में दो ही वस्तुओं की अधिक प्रधानता है-लग्न और चन्द्रमा। लग्न को शरीर और चन्द्रमा को मन कहते हैं। प्रेम मन से होता है, शरीर से नहीं। अतएव जन्म-राशि के वश मेलापक विचार किया जाता है। गणना जन्म नाम से देखी जाती है।

विवाह, यात्रा, उपनयन, चूडाकरण (मुण्डन), गोवर- विचार, मंगल कृत्य इत्यादि कार्यों में जन्म-नाम ही प्रधान है। जन्म-नाम न मिलने पर प्रसिद्ध नाम से गणना देखनी चाहिए। प्रसिद्ध नाम कई हों तो अन्तिम नाम ग्रहण कर गणना देखने का विधान है। किसी का जन्म और प्रसिद्ध दोनों नाम हो और दूसरे का केवल प्रसिद्ध ही नाम हो तो मेलापक प्रसिद्ध नाम से और सूर्य-गुरु- चन्द्रमा के बल जन्म-नाम से देखना उत्तम है। एक का प्रसिद्ध नाम और दूसरे का जन्म-नाम ग्रहण कर मेलापक विचार करने का विधान नहीं है। वर- कन्या यदि एक ही गोत्र के हों तो विवाह नहीं करना चाहिए।

विवाह के मास-The Months Suitable for Marriage

मिथुन, कुम्भ, मकर, वृश्चिक, वृष, मेष इन राशियों के सूर्य में विवाह शुभ होता है। मिथुन का सूर्य आषाढ़ शुक्ल 10 तक शुभ है। वृश्चिक के सूर्य होने पर कार्तिक में, मेष का सूर्य होने से चैत्र में, मकर का सूर्य होने पर पौष में विवाह शुभ होता है।

विवाह मुहूर्त-Marriage Auspicious Time

नक्षत्र – तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, मघा, मूल, अनुराधा, हस्त एवं स्वाती । लग्न – कन्या, तुला, और मिथुन । मास- फाल्गुन, माघ, मार्गशीर्ष, आषाढ़, ज्येष्ठ और वैशाख । दिन- भौम तथा शनि को छोड़कर शेष शुभ दिन। तिथि- रिक्ता तथा अमावस्या को छोड़कर विवाह शुभ है।

नौ ताराओं के नाम-Names of the Nine Planets

जन्म-नक्षत्र से दिन नक्षत्र तक संख्या गिनकर 9 का भाग देने से शेष 1. जन्म, 2. सम्पत्, 3. विपत्, 4. क्षेम, 5. प्रत्यरि, 6. साधक, 7. वध, 8. मैत्र, 9. अतिमैत्र। ये नौ ताराओं के नाम हैं।

दुष्टतारा दान-Malefic Planetary Donation

वध में स्वर्ण तथा तिल, विपत् में गुड़, जन्म में शाक तथा प्रत्यरि में लवण (नमक) दान करना चाहिए।

नोट : प्रत्येक तारा की तीन आवृति होती है। पहली आवृत्ति में विपत् का प्रथम, प्रत्यरि का चतुर्थ, वध का तृतीय चरण शुभ होता है, बाकी सब अशुभ। तीसरी आवृत्ति में सभी ताराएँ शुभ होती है।

रवि-चन्द्र-गुरु शुद्धि-Sun-Moon-Jupiter Conjunction

रवि : जन्म राशि से 3/6/10/11वें रवि शुभ हैं। यदि रवि 13 अंश से अधिक हो तो 2/5/9 राशि में भी शुभ है।

चन्द्र : 1/3/6/7/10/11 वें स्थान में चन्द्रमा शुभ होता है। 2/5/9 शुक्लपक्ष में शुभ होता है। 4/8/12 अशुभ है।

गुरु : 2/5/7/9/11 वें स्थान में शुभ होता है। 10/6/3/1 इनमें शान्ति करने पर शुभ तथा 4/ 8/12 में अशुभ होता है। बालक का यज्ञोपवीत, कन्या तथा वर के विवाह में शुभ-अशुभ विचार करना आवश्यक है। गुरु अपने उच्च राशि, मित्र गृह तथा अपने नवांश में रहे तो अशुभ भी शुभ होता है। नीच राशि या शत्रु गृह में शुभ भी अशुभ होता है। बाकी सब ग्रह रवि, चन्द्र आदि अपने उच्च स्थान पर रहने पर अनिष्ट स्थान में भी शुभ फल देते हैं।

वर्ण-विचार-Caste Consideration

कर्क, मीन, वृश्चिक, ब्राह्मण वर्ण । मेष, सिंह, धनु, क्षत्रिय । कन्या, वृष, मकर वैश्य । मिथुन, तुला, कुम्भ शूद्र वर्ण होते हैं। वर-कन्या का वर्ण एक होवे या वर का वर्ण कन्या के वर्ण से हमेशा श्रेष्ठ होना चाहिए।

गणादि-दोष- परिहार-Remedies for Gana Dosha

राशि स्वामियों में मैत्री हो या अंश-स्वामी में मैत्री हो, तो गणादि दुष्ट रहने पर विवाह पुत्र-पौत्र को बढ़ाने वाला होता है।

राशि-कूटZodiac Sign Compatibility

वर की राशि से कन्या की राशि तक और कन्या की राशि से वर की राशि तक गिनने पर 6/8 में दोनों की मृत्यु, 9/5 में सन्तान हानि और 2/12 में दरिद्रता होती है।

दुष्ट- भकूट- परिहार -Remedies for Malefic Bhakoot Dosha:

वर कन्या की राशि के स्वामी एक ही ग्रह हों अथवा दोनों राशियों मैत्री हो, नाड़ी, नक्षत्र शुद्ध होने पर दुष्ट भकूट ग्रह नहीं होता है।

नाड़ी-विचार-Consideration of Nadis(Pulse) :

वर-कन्या की एक नाड़ी में विवाह वर्जित है। मध्य नाड़ी मृत्यु तथा भिन्न नाड़ी शुभ होता है।

विशेष-Special : ब्राह्मण को नाड़ी-दोष, क्षत्रियों को वर्णदोष, वैश्यों को गण-दोष और शूद्रों को योनि-दोष विचार करना चाहिए।

किसी आचार्य ने नक्षत्र मेलापक के दस, किसी ने बारह और किसी अठारह भेद माने हैं, परन्तु सर्व- प्रसिद्ध निम्नलिखित ये ही आठ भेद हैं- 1. वर्ण, 2. वश्य, 3. तारा नक्षत्र, 4. योनि, 5. ग्रहमैत्री, 6. गण, 7. भकूट या राशिकूट, 8. नाड़ी। इन आठों में शास्त्रकारों ने नाड़ी पर अधिक जोर दिया है। इस तथ्य का पता आगे नाड़ी-विवेचन में लगेगा।

वर्ण-Caste :

सामाजिक वर्णों की तरह इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये ही चार वर्ण होते हैं। उच्च वर्ण में ऊँचे होने का भाव रहता है जैसे, क्षत्रिय वर्ण के मनुष्य पर यदि शूद्र वर्ण का मनुष्य प्रभाव दिखाना चाहे तो वह क्षत्रिय उसका शीघ्र शमन कर देगा। इसी प्रकार यदि ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण की कन्या हो और शूद्र वर्ण का वर हो तो वह कन्या उच्च वर्ण की होने से सदा वर को दबाती रहेगी। इस तरह स्त्री-पुरुष का जीवन गृहस्थाश्रम में सुखपूर्वक व्यतीत नहीं हो सकता। इसी झगड़े से बचने के लिए ‘वर्ण’ का विचार किया जाता है।

वश्य-Vasya :

वश्य से विचार किया जाता है कि, स्त्री पति के अधीन में रहने वाली है या नहीं। वास्तव में स्त्री का पति के अधीन रहना भी आवश्यक है। शास्त्र में लिखा है कि बचपन में देख-रेख पिता, यौवन में पति और वृद्धावस्था में पति के जीवित न रहने पर पुत्र ही करे। क्योंकि स्वतन्त्र स्त्री को अनर्थ से बचने तथा सुखपूर्वक गृहस्थाश्रम व्यतीत करने के लिए ‘वश्य’ का विचार किया जाना आवश्यक है।

तारा-Tara( Star) :

पूर्व वर्णित ग्रहों की तरह तारा का प्रभाव होता है। चन्द्र-ग्रह शास्त्रानुसार मनुष्य का मन है। इसका विचार भकूट या राशि के नाम से होता है। चन्द्र तारा पति कहलाता है। जब चन्द्रमा का विचार होता है तो ताराओं का भी विचार आवश्यक है। कृष्णपक्ष में चन्द्र की क्षीणावस्था का विचार किया जाता है।

योनि-Genitalia(Yoni) :

योनि शब्द का अर्थ तो सरल ही है। इससे स्त्री-पुरुष की प्रीति की जानकारी की जाती है। जैसे-गज और गज योनि में परस्पर प्रेम एवं गज और सिंह योनि में परस्पर वैर होता है। अन्य योनियों में भी इसी तरह प्रीति और वैर होता है। अतः दम्पति में प्रेम रहने की जानकारी के लिए वैर-योनि को छोड़कर प्रीति योनि को ही ग्रहण करना चाहिए।

ग्रह-मैत्री -Planetary Friendship:

ग्रहों में भी परस्पर स्वाभाविक मित्रता, समता और शत्रुता होती है। इसी तरह वर-वधू के राशि स्वामियों में भी मित्रता हो तो दोनों का जीवन मित्रवत् बीत जाता है। यदि समता हुई तो कभी प्रसन्नता और कभी लड़ाई होती है और शत्रुता होने से दोनों में शत्रुता उत्पन्न होती है। अतः मित्रवत् जीवन व्यतीत होने की जानकारी होने के लिए ग्रह-मैत्री देखनी आवश्यक है

गण-Gana (Personality Type):

गण तीन होते हैं-देव, मनुष्य मनुष्य और राक्षस । को यह पता लग जाय कि वर मनुष्य और कन्या राक्षस गण की है, तो वह अनायास ही राक्षस प्रकृति याद कर बोल उठेगा कि तब तो कन्या वर को निगल जायेगी अर्थात् लड़का काल के गाल में चला जायेगा। यदि देव और राक्षस गण हों तो देव और राक्षस की लड़ाई होती रहेगी। मनुष्य को देवता में जिस तरह की प्रीति होती है, वैसी ही प्रीति इन गणों में भी होगी और समान गण हों, तो प्रेम होता ही है। इसलिए राक्षस गण की दृष्टि से बचने और प्रीति के लिए गण का विचार होता है।

भकूट या राशिकूट-Bhakoot or Rashikoot (Aspect Compatibility) :

वर-वधू के जन्म-समय में चन्द्रमा जिन राशियों पर होता है, वे ही उनकी राशियाँ होती हैं। ग्रहों की तरह इन राशियों में भी मित्रता, शत्रुता आदि होती है। इनमें मित्रता होने से दम्पति प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं। शत्रु षडष्टक और विषम सप्तम में मृत्यु, नव-पञ्चम में अनपत्यता, अशुभ द्विर्द्वादश में निर्धनता एवं अशुभ, दशम-चतुर्थ में दौर्भाग्य और दैन्य होता है। राशियों के विचार करने से ही मनुष्य के मन में चन्द्रमा का विचार हो जाता है। इसलिए दोनों की राशियों का विचार कर लेना चाहिए। नाड़ी : ‘नाड़ी’ के नाम से समझना चाहिए कि यह वह नाड़ी है जिसे देखकर वैद्य, हकीम या डॉक्टर रोग का पता लगाते हैं। इसी नाड़ी को अंग्रेजी में ‘पुल्स’ भी कहते हैं। ज्योतिष में तीन नाड़ियाँ मानी गयी हैं-आदि, मध्य, अन्त्य । ये तीन नाड़ियाँ वैद्यक के अनुसार क्रम से वात, पित्त और कफ की नाड़ियाँ हैं। यदि वर-वधू दोनों की आदि (वायु) नाड़ी हो तो दोनों के संयोग से वात का आधिक्य होने से पति की हानि होगी। यदि दोनों के मध्य (पित्त) नाड़ी हो, तो दोनों के संयोग से पित्त का आधिक्य होने से पति की हानि होगी। और यदि दोनों की अन्त्य (कफ) नाड़ी होगी तो कफ का आधिक्य दोनों की मृत्यु करा देगा। शरीर की क्रिया नाड़ी पर अवलम्बित है। इसलिए शास्त्रकारों ने नाड़ी पर अधिक जोर देकर कहा है-

सदा नाशयत्येकनाड़ी समाजो भकूटादिकान् सप्तभेदास्तथा च।’

अर्थ : वर्णादि सातों ठीक हों और नाड़ी एक तो भी विवाह नहीं करना चाहिये। परन्तु साथ-साथ उन्होंने सूक्ष्म विचार करके परिहार भी लिखे हैं।

अब मंगल ग्रह की विशेषता पर विचार किया जाता है। सभी ग्रहों के अंशों के मेल से यह शरीर बनता है। और रक्त संचालन क्रिया पर निर्भर करता है। यह रक्त ज्योतिष का मंगल ग्रह माना गया है। यदि दोनों का मंगल (रक्त) ठीक मिल गया अर्थात् दोनों का रक्त एक-दूसरे के उपयुक्त हुआ तो उनका जीवन आधी-व्याधि से व्यथित नहीं होगा। इसके विपरीत दोनों का मंगल (रक्त) उपयुक्त नहीं है तो जिस तरह दूध में विकार हो जाने से वह फट जाता है और बरबाद हो जाता है। इसी तरह एक-दूसरे के रक्त भी अनुपयोगी हो जाता है और रक्त पर निर्भर करने वाला मनुष्य का शरीर टिक नहीं सकता। इसलिए रक्त की उपयुक्तता जानने के लिए मंगल मिलाना आवश्यक है।

इन सब बातों पर विचार करने से यही पता लगता है नक्षत्र और ग्रह गणना न करने से मनुष्य की, समाज और देश की बड़ी हानि होती है।

सिंहस्थ- गुरु व्यवस्था-Bhakoot or Rashikoot (Aspect Compatibility) :

सामान्य रूप से गुरु की राशि पर सूर्य और सूर्य की राशि में गुरु के आने पर गुर्वादित्य नामक दोष होता है।

गुरुक्षेत्रगते भानौ भानुक्षेत्रगते गुरौ

गुर्वादित्यः विज्ञेयो गर्हितः सर्वकर्मसु

इसी प्रकार सामान्य रूप से लगभग 12 वर्षों के बाद सिंह राशि पर गुरु के आने से गुर्वादित्य दोष, विवाहादि शुभ कार्य में वर्जित है।

‘अस्ते वर्ज्य सिंहनक्रस्थजीवे वर्ज्यं केचिद्वक्रगे चातिचारे।
गुर्वादित्ये विश्वघस्त्रेऽपि पक्षे प्रोचुस्तद्वद्दन्तरत्नादिभूषाम्।। 1 ।।
 सिंहे गुरौ सिंहलवे विवाहो नेष्टोऽथ गोदोत्तरतश्च यावत् ।
भागीरथी- याम्यतटं हि दोषो नान्यत्र देशे तपनेऽपि मेषे ॥ 2 ॥
मघादि-पञ्चपादेषु गुरुः सर्वत्र निन्दितः ।
गंगागोदान्तरं हित्वा शेषांघ्रिषु न दोषकृत् ॥3॥
मेषेऽर्के सन् व्रतोद्वाहो गंगा-गोदान्तरेऽपि च।
सर्वः सिंहे गुरुर्वर्ण्यः कलिंगे गौडगुर्जरे ॥ 4 ॥

                                   (मुहूर्त चिन्तामणि, शु०प्र०)

सिंहराशौ तु सिंहांशे यदा भवति वाक्पतिः। सर्वदेशे स्वयं त्याज्यो दम्पत्योर्निधनप्रदः॥

                                                                                                            (राज० मा०)

श्रीलल्ल के वचनानुसार सिंह राशि के गुरु में गोदावरी के उत्तर तट से भागीरथी के दक्षिण के स्थलों में विवाहादि शुभ कार्य वर्जित हैं।

 यथा-

गोदावर्युत्तरतो यावद् भागीरथीतटं याम्यं, यत्र विवाहो नेष्टः सिंहस्थे देव पतिं पूज्यः

 ‘भागीरथ्युत्तरे कुले गौतम्याः दक्षिणे तथा विवाहो व्रतबन्धो वा सिंहस्थेज्ये दुष्यति ॥ (व.सं.) 4

सबका सारांश अधोलिखित है—

1. सिंह राशि का गुरु कलिंग, गौड़ और गुर्जर। देशों में शुभ कार्य के लिए वर्जित है।

2. सिंह राशि में सिंह नवांश का, गौतमी के दक्षिण तटवासी नगरों में सिंहस्थ गुरु होने पर व्रतबन्ध, होता है। अतः मेष के सूर्य में समस्त देश में विवाहादि शुभ कार्य नहीं किये जा सकेंगे।

Reference : Pt. R.N. Tripathi

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